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*सोइ जन साचे सो सती, सोइ साधक सुजान ।*
*सोइ ज्ञानी सोई पंडिता, जे राते भगवान ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---पवित्र सती
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उत्तंग ऋषि गुरु दक्षिणा देने के लिये, राजा पौष्य की पत्नि के कुण्डल लाने गये थे । राजा ने कहा - आप स्वयं ही अन्त:पुर में जाकर ले आवें । ऋषि गये किंतु निकट जाने पर भी रानी को देख न सके । फिर जाकर राजा से कहा - अन्त:पुर में रानी नहीं है । राजा- रानी भीतर ही है, किन्तु ज्ञात होता है कि तुम्हारा मुख उच्छिष्ट होगा । इसलिये तुम उसे न देख सके । (उत्तंग को मार्ग में धर्मरूप बैल पर चढे हुये इन्द्र मिले थे । उसके कहने से उत्तंग ने बैल का गोबर खाया तथा मूत्र पिया था और शीध्रता से साधारण आचमन करके पौष्य के पास चले आये थे) पवित्र होकर जाओ फिर उत्तंग भली भांती पवित्र होकर गये । कुण्डल लाकर गुरु पत्नि को दे दिये ।
अशुचि अवस्था में कभी, सती दृष्टि नहीं आय ।
पौष्य पत्नि को लख न सके, निकट उत्तंग सुजाय ॥५५॥
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