बुधवार, 14 अप्रैल 2021

विनती कौ अंग ३४ - ६५/६८

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ विनती कौ अंग ३४ - ६५/६८)*
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*सत छूटा शूरातन गया, बल पौरुष भागा जाइ ।
*कोई धीरज ना धरै, काल पहूँता आइ ॥६५॥
सत्य स्वरूप परमात्मा का चिन्तन छूट गया । हृदय से साधन करने का उत्साह समाप्त हो गया । शारीरिक शकित मनोबल भी न्यून होता जा रहा है । बुद्धि इन्द्रियां सब अधीर हो गये हैं । मृत्यु भी समीप आ पहुंचा । अतः हे प्रभो ! ऐसी अवस्था में आप ही रक्षा कर सकते हैं ।
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*संगी थाके संग के, मेरा कुछ न वशाइ ।
*भाव भक्ति धन लूटिये, दादू दुखी खुदाइ ॥६६॥
बुद्धि इन्द्रियाँ मन आदि मेरे सहायक साथी थे, वे भी शक्तिशून्य हो चले । बुद्धि के ठीक न रहने के कारण कामादि शत्रु भी भावभक्ति धन को लूटने में लगे हुए हैं । उन पर मेरा कोई अब प्रभुत्व भी नहीं रह गया, अतः मैं दादूराम आप से दुःखी होकर प्रार्थना कर रहा हँ कि हे जगन्नाथ ! परमात्मन् मेरी रक्षा करें । हे राम ! मेरी रक्षा करें ॥
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*॥ परिचय करुणा विनती ॥*
*दादू जियरे जक नहीं, विश्राम न पावै ।*
*आत्म पाणी लौंण ज्यों, ऐसे होइ न आवै ॥६७॥*
जैसे जल में डाला हुआ नमक जल में मिल कर एक हो जाता है । वैसे ही जब तक जीवात्मा परमात्मा का अभेद नहीं हो जाता तब तक प्राणी को शान्ति नहीं होती । जल में जल मिलने के समान अखण्ड विश्राम नहीं प्राप्त होता । जब तक मेरे मन की अखण्ड ब्रह्माकारा वृत्ति बनेगी तब ही मुझे शाश्वत सुख प्राप्त होगा । हे प्रभो ! यह सब आपकी कृपासाध्य है । अतः आपके आगे मेरी यही प्रार्थना है कि आप मेरे को अपने में मिला कर अपने से अभिन्न बनालो ॥६७॥
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*॥ दया विनती ॥*
*दादू तेरी खूबी खूब है, सब नीका लागे ।*
*सुन्दर शोभा काढ़ ले, सब कोई भागे ॥६८॥*
हे प्रभो ! आप प्रत्येक प्राणी के हृदय में जीव भाव से प्रविष्ट होकर बहुत सुन्दर लगते हैं । आप के प्रवेश से ही सब कुछ मनोहर लगता है । यदि इस सुन्दर शरीर से कदाचित् जीवशक्ति चली जाय तो उसके सभी सम्बंधीवर्ग उस से भयभीत होकर दौड जाते हैं । अतः आप अब हम पर दया करके अपने स्वरूप में लीन कर लो जिससे अखण्ड शोभा बनी रहे ॥६८॥
(क्रमशः)

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