सोमवार, 5 अप्रैल 2021

*विद्या माहात्म्य का अंग १४७(५/८)*

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*पूजूं पहली गणपति राइ,*
*पड़िहौं पावों चरणों धाइ ।*
*आगै ह्वै कर तीर लगावै,*
*सहजैं अपने बैन सुनाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विद्या माहात्म्य का अंग १४७*
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गुण गणेश को मानिये, गुण पूजा गुरु पीर ।
रज्जब विद्या धर बड़े, विद्या बावन१ वीर ॥५॥
विद्या गुण से ही गणेशजी को माना जाता है, गुण से ही गुरु-पीरों की पूजा होती है, बिना गुण से विद्याघर बड़े माने जाते हैं और विद्या से ही महान्१ वीर होता है ।
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विद्या शारद१ बंदिये, गुण लुकमान हकीम ।
रज्जब पावै मान२ महि३, विद्या में जु फहीम४ ॥६॥
विद्या से ही सरस्वती१ को प्रणाम किया जाता है, गुण से ही लुकमान हकीम की प्रतिष्ठा है, विद्या में संग्लन रहने से ही समझदार४ पृथ्वी३ में सन्मान२ पाता है ।
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विद्या संगी जीव की, सदा रहै सो साथ ।
जन रज्जब परधान१ परि२, लिये खजाना हाथ ॥७॥
विद्या जीव की संगिनी है, वह सदा साथ रहती है, विद्वान प्रधान१ से भी श्रेष्ठ२ होता है, अपना विद्या रूप खजाना बुद्धि रूप में लिये ही रहता है ।
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विद्या में हूनर सभी, विद्या में मंत्रादि ।
विद्या वश परबरति२ है, विद्या हरि आराधि३ ॥८॥
विद्या में सभी कलायें हैं, विद्या में ही मंत्र मंत्रादि हैं, प्रवृति भी विद्या के अधीन ही है, विद्या से हरि की उपासना३ होती है ।
(क्रमशः)

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