सोमवार, 12 अप्रैल 2021

*अकलि चेतन का अंग १४९(१/४)*

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*राम धन खात न खूटै रे,*
*अपरंपार पार नहिं आवै, आथि न टूटै रे ॥*
*हरि हीरा है राम रसायन, सरस न सूखै रे ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अकलि चेतन का अंग १४९*
इस अंग में सावधान बुद्धि, चेतन, ज्ञान और ज्ञानी विषयक विचार कर रहे हैं ~
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अकलि१ अखण्डित माल२ है, बहु विद्या वित३ माँहिं ।
सदा सु धन आतम कनें४, कब हूं बिछुटै नाँहिं ॥१॥
बुद्धि१ अखण्डित धन वाला कोश है, इसमें बहुत प्रकार का विद्या रूप धन२ रहता है और यह विद्यारूप धन३ जीवात्मा के पास४ सदा रहता है, कभी भी बिछुड़ता नहीं है ।
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रज्जब गैबी माल को, ज्ञान खानि सम जानि ।
बहुत हि खरचै खाय बहु, कदे न होई हानि ॥२॥
ब्रह्म रूप गुप्त धन के लिये ज्ञान को ही खानि के समान जानो अर्थात खानि से हीरा आदि धन मिलता है वैसे ही ज्ञान से ब्रह्म प्राप्त होता है । बहुत खर्चने और खाने पर भी अर्थात ब्रह्म का उपदेश देने पर भी, वह कभी भी कम नहीं होता ।
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अकलि१ कहै गुरु पीर है, अकलि२ अलह३ पहचान ।
रज्जब अकलि अभंग४ उर, अकलि अमोलक जान ॥३॥
गुरु और पीर१ ज्ञान का ही उपदेश करते हैं, ब्रह्म३ की पहचान भी ज्ञान से ही होती है२, ज्ञान हृदय में अखंड४ रह सकता है, ज्ञान को ही अमुल्य रत्न जानो ।
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अकलि१ इनायत२ अकल३ की, जासौं व्है गुरु पीर ।
वपु वैरागर४ खानि तै, खणि५ काढैं हरि हीर६ ॥४॥
ज्ञान१ कला रहित ब्रह्म३ की कृपा२ है, जिससे साधारण प्राणी भी गुरु और पीर बन जाते हैं । जैसे हीरों४ की खानि से खोदकर५ हीरा६ निकलता जाता है, वैसे ही विचार द्वारा शरीर में ही हरि का साक्षात्कार करते हैं ।
(क्रमशः)

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