सोमवार, 12 अप्रैल 2021

*बौद्धधर्म की बात : ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है*

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*समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ ।*
*दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
श्रीरामकृष्ण ने थोड़ा सा ही विश्राम किया था कि कलकत्ते से हरि, नारायण, नरेंद्र बन्ध्योपाध्याय आदि ने आकर भूमिष्ठ हो उन्हें प्रणाम किया । नरेंद्र बन्ध्योपाध्याय प्रेसीडेन्सी कॉलेज के संस्कृत अध्यापक राजकृष्ण बन्ध्योपाध्याय के पुत्र हैं । घर में मेल न होने के कारण श्यामपुकुर में अलग मकान लेकर स्त्री-पुत्र के साथ रहते हैं । बहुत ही सरलचित्त व्यक्ति हैं; २९-३० साल की उम्र होगी । जीवन के शेष भाग में उन्होंने प्रयाग में निवास किया था । ५८ वर्ष में उनका देहान्त हुआ था ।
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ध्यान के समय वे घण्टा-ध्वनि आदि नाना प्रकार के शब्द सुनते थे । भूटान, उत्तर पश्चिम तथा अन्य अनेक प्रदेशों में उन्होंने भ्रमण किया था, बीच-बीच में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आते थे ।
हरि(स्वामी तुरीयानन्द) उन दिनों अपने बागबाजार के मकान में भाइयों के साथ रहते थे । जनरल असेम्बली में प्रवेशिका(मैट्रिक) तक पढ़कर उस समय घर पर ईश्वर-चिन्तन, शास्त्र-पाठ तथा योग का अभ्यास किया करते थे । कभी कभी दक्षिणेश्वर में जाकर श्रीरामकृष्ण का दर्शन करते थे । श्रीरामकृष्ण बागबाजार में बलराम के घर जाने पर उन्हें कभी कभी बुला लेते थे ।
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*बौद्धधर्म की बात : ब्रह्म ज्ञानस्वरूप है*
श्रीरामकृष्ण – (भक्तों के प्रति) – बुद्धदेव की बात हमने अनेक बार सुनी है । वे दस अवतारों में से एक हैं । ब्रह्म अचल, अटल है, निष्क्रिय है और ज्ञानस्वरूप है । जब बुद्धि उस ज्ञानस्वरूप में लीन हो जाती है, उस समय ब्रह्मज्ञान होता है, उस समय मनुष्य बुद्ध बन जाता है ।
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“न्यांगटा(तोतापुरी) कहा करता था, मन का लय बुद्धि में, और बुद्धि का लय ज्ञानस्वरूप में हो जाता है ।
“जब तक ‘अहं” भाव रहता है, तब तक ब्रह्मज्ञान नहीं होता । ब्रह्मज्ञान होने पर, ईश्वर का दर्शन होने पर ‘अहं’ अपने वश में आ जाता है । ऐसा न होने पर ‘अहं’ को वशीभूत नहीं किया जा सकता । अपनी परछाई को पकड़ना कठिन है परन्तु सूर्य जब सिर पर आ जाता है तो परछाई आधे हाथ के भीतर रहती है ।”
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भक्त – ईश्वर-दर्शन का स्वरूप कैसा है ?
श्रीरामकृष्ण – नाटक का अभिनय नहीं देखा है ? लोग सब आपस में बातचीत कर रहे हैं; ऐसे समय परदा उठ गया तब सब लोगों के सारा मन अभिनय में लग जाता है । फिर बाहर की ओर दृष्टि नहीं रहती । इसी का नाम है समाधिस्थ होना ।
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“फिर परदा गिरने पर पुनः बाहर की ओर दृष्टि । मायारूपी परदा गिरने पर फिर मनुष्य बहिर्मुख हो जाता है । (नरेंद्र बन्द्योपाध्याय के प्रति) तुमने अनेक देशों में भ्रमण किया है । कुछ साधुओं की कहानी सुनाओ ।”
बन्ध्योपाध्याय ने भूटान में दो योगियों को देखा था, वे आधा सेर नीम का रस पी जाते थे, ये ही सब कहानियाँ कह रहे हैं । फिर नर्मदा के तट पर साधु के आश्रम में गये थे । उस आश्रम के साधु ने पैण्ट पहने बंगाली बाबू को देखकर कहा था, ‘इसके पेट में छुरी है ।’
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श्रीरामकृष्ण - देखो, साधुओं के चित्र घर में रखने चाहिए, इससे सदा ईश्वर का उद्दीपन होता है ।
बन्ध्योपाध्याय – मैंने आपका चित्र कमरे में रखा है और साथ ही एक पहाड़ी साधु का चित्र भी रखा है – हाथ में गांजा की चिलम में आग जल रही है ।
श्रीरामकृष्ण – हाँ, साधुओं का चित्र देखने से उद्दीपन होता है । जैसे मिट्टी का बना हुआ आम देखने से वास्तविक आम का उद्दिपन होता है, युवती स्त्री देखने से लोगों के मन में जिस प्रकार भोग का उद्दीपन होता है ।
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“इसीलिए तुम लोगों से कहता हूँ कि सदैव ही साधु-संग आवश्यक है । (बन्ध्योपाध्याय के प्रति) संसार की ज्वाला तो देखी है । भोग लेने में ही ज्वाला है । चील के मुँह में जब तक मछली थी, तब तक झुण्ड के झुण्ड कौए आकर उसे तंग कर रहे थे ।
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‘साधु-संगति में शान्ति होती है । जल के भीतर मगर बहुत देर तक रहता है, साँस लेने के लिए एक एक बार जल के ऊपर चला आता है । उस समय साँस लेकर शान्त हो जाता है ।”
नाटकवाला – जी आपने भोग की बातें कहीं सो ठीक है । ईश्वर कल्पतरु हैं । मनुष्य उनसे जो भी कुछ माँगता है, वही उसे प्राप्त होता है । अब उसके मन में यदि भावना हो कि ‘ये तो कल्पतरु हैं अच्छा, देखें, यदि शेर यहाँ पर आ जाय तो जानें ।’ बस शेर की याद करते ही शेर आ खड़ा होता है और उसे खा जाता है ।
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श्रीरामकृष्ण – हाँ, यह ध्यान में रखना कि शेर आता है । अधिक और क्या कहूँ, इधर मन रखो, ईश्वर को न भूलो – सरल भाव से उन्हें पुकारने पर वे दर्शन देंगे ।
“एक और बात – नाटक के अन्त में कुछ हरिनाम करके समाप्त किया करो । इससे जो लोग गाते हैं और जो लोग सुनते हैं वे सभी ईश्वर का चिन्तन करते करते अपने अपने स्थानों में जायेंगे ।”
नाटकवाले प्रणाम करके बिदा हुए ।
(क्रमशः)

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