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*कर्मै कर्म काटै नहीं, कर्मै कर्म न जाइ ।*
*कर्मै कर्म छूटै नहीं, कर्मै कर्म बँधाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###.
श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- कर्म
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एक कांवडिया ब्राह्मण रामेश्वर को जल चढाने जा रहा था । मार्ग में एक नदी के तट एक रात रहा । वहां के नगर के राजा के महल में चोरी हुई चोरों ने नदी तट पर सोये ब्राह्मण के गले में रत्नों की माला को साधारण माला समझ कर डाल दिया और चले गये । प्रात:काल ब्राह्मण के गले में रत्नों की माला देखकर पुलिस ने उसे पकड़ लिया । राजा ने उसके हाथ कटवा डाले ।
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ब्राह्मण भक्त था, ईश्वर से प्रार्थना की कि - "भगवन ! मैंने तो कोई ऐसा पाप न किया था जिससे हाथ काटे जाये" तब आकाश वाणी ने कहा "ऐसा नहीं होता कि बिना पाप दु:ख मिले, तुमने पूर्व जन्म में गो की गर्दन कटवाई थी, इसी से तुम्हारे हाथ गये हैं । एक मार्ग में जिसके दोनों और दिवार थी, गो कसाई के हाथ से छुट कर भागी जा रही थी, तुम सामने आ रहे थे । कसाई ने तुम को आवाज दी - "गो को रोको।" तुमने अपने दोनों हाथ आड़े करके रोक लिया था, इससे कसाई ने उसे पकड़ लिया और घर ले जाकर मार दिया । उसी पाप से तुम्हारे हाथ काटे गये।" आकाशवाणी ऐसा कह रुक गई ।
पूर्व कर्म बिन दुख न हो, यह निश्चय कर जान ।
कांवडिया कर कटन का, हेतु कहा भगवान ॥१४॥
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