मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

*१५. माया कौ अंग ~ ८५/८८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ ८५/८८*
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जगजीवन सुंदर बण्यां, सुरति पाक सरीर ।
चंचल मांही चल बस्या, हरि भजि रह्या न थीर४ ॥८५॥
(४. थीर=स्थिर)  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह सुन्दर हो पवित्र हो पर चित की चंचलता तो मन को चलायमान रखती है जिससे हरी स्मरण नहीं होता ।
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जगजीवन संसार की, आस करै सो अंध ।
ए माया म्रिगभाडली५, दीसत है पुनि धंध ॥८६॥
{५. म्रिगभाडली=मृगतृष्णा(मृगमरीचिका)} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो इस संसार से आशा रखता है कि मेरा भला होगा वह अंधे जैसा है यह तो मृगमरीचिका है । जो सिर्फ भ्रम में दौड़ाती ही है जो दिखता है वह असत्य होता है ।
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घणौं६ काम संसार को, और अंत नहिं ताहि ।
फीकी बांणी उचरै, जगजीवन कहै काहि ॥८७॥
(६. घणौं=बहुत अधिक)।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार में काम बहुत है जिनका अंत ही नहीं है । सब बेकार की बात करते है अब किसी से क्या कहें ।
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जूठन७ बिलसै जगी की, भगत धरावै नांम ।
कहि जगजीवन रांमजी, मनसा रहै न ठांम ॥८८॥
(७. जूठन=उच्छिष्ट भोजन या उपयोग में लायी हुई चीज)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव संसार की त्याज्य वस्तुओं की भी कामना करता है और फिर स्वांग भक्त का करते हैं । भक्त तो भगवान भरोसे रहते हैं । उन जीवों की मन इच्छा कभी तुष्ट होती ही नहीं है ।
(क्रमशः)

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