सोमवार, 5 अप्रैल 2021

*१५. माया कौ अंग ~ ६५/६८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ ६५/६८*
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अज्या सुत ज्यूं अनंग बसी, जननी इच्छै जोइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, ए सुध प्रांन क्यों होइ ॥६५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं जिस प्रकार पशु कामवश हो सभी नाते भूल जाते हैं ऐसी इच्छा कभी भी न भावों में आये । ऐसी प्रार्थना करते हैं ।
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तंबा सुत नर नांउ बिन, प्रवरति९ रस की प्यास ।
ग्यांन गया चलि अंबु मैं, सु कहि जगजीवनदास ॥६६॥
{९. प्रवरति=प्रवृत्ति(सांसारिक व्यवहार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव अपने अपने आप को बिना प्रसिद्धि के व्यर्थ मानते हैं । क्योंकि उनकी प्रवृत्ति ही उस आनंदरस की इच्छित है जिसमें नाम हो । उनका ज्ञान मानो पानी में बह गया हो ऐसा प्रतीत होता है ।
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माया मांहै मन फिरै, गगन फिरै ज्यूं बाज१ ।
जगजीवन इस जीव का सर्या न एकै काज ॥६७॥
(१. बाज=एक हिंसक पक्षी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह मन इस प्रकार डोलता है जैसे आकाश में बाज उड़ता है । इस प्रकार व्यर्थ की उड़ान से कोइ भी कार्य सिद्ध नहीं होता है ।
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बण्या बणाया बहि गया, बणिता२ संग रमंत ।
जगजीवन भोगी भंवर, गाफिल प्राण रवंत ॥६८॥
{२. वणिता=वनिता(स्त्री)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्त्री की संगत से बना बनाया काम भी बिगड़ जाता है जैसे रस का लोभी भ्रमर कमल कोष में बंद हो अपने प्राण गंवा देता है ।
(क्रमशः)

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