गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

*धन्य प्रहलाद कीन्हों बाद विधना के काज*

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*राम नाम नहीं छाडूं भाई,*
*प्राण तजूं निकट जीव जाई ॥टेक॥*
*रती रती कर डारै मोहि,*
*साँई संग न छाडूं तोहि ॥१॥*
*भावै ले सिर करवत दे,*
*जीवन मूरी न छाडूं तोहि ॥२॥*
*पावक में ले डारै मोहि,*
*जरै शरीर न छाडूं तोहि ॥३॥*
*अब दादू ऐसी बन आई,*
*मिलूं गोपाल निसान बजाई ॥४॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. १)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*प्रहलाद*
मूल मनहर –
*धन्य प्रहलाद कीन्हों बाद विधना के काज,*
*जाहु तन आज मैं न छाडूं टेक राम की ।*
*अगनि तपायो तन जिये मांहीं एक पन,*
*हरि बिन जाहु जरि देह कौन काम की ॥*
*देख्यो कसि जल-थल ऊबरयो भजन बल,*
*रटत अखंड शरनाई सत्य श्याम की ।*
*असुर की कसर से नृसिंह स्वरूप धरयो,*
*राघो कहै जीत्यो जन बाँह वरयाम१ की ॥१२३॥*
प्रहलाद हिरण्यकशिपु के द्वारा कयाधु के गर्भ से उत्पन्न हुये थे । एक समय हिरण्यकशिपु देवताओं को जीतने के लिये तप कर रहा था । तब इन्द्र ने असुरों पर चढ़ाई कर दी और विजय प्राप्त की तथा हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को पकड़ कर ले चले ।
मार्ग में नारद मिले और इन्द्र को बोले - तुम इस नारी को क्यों ले जाते हो? इन्द्र ने कहा – मैं इसे नहीं मारूंगा किन्तु इसके पेट में हिरण्यकशिपु का गर्भ है । उसके उत्पन्न होने पर उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा ।
नारदजी में अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कहा – वह तो परम भागवत है, उससे तुम्हें कुछ भय नहीं है, इसे छोड़ दो । नारद उसे अपने आश्रम पर ले गये और उसका मन लगाने के लिये भगवत् कथाएँ सुनाते रहे । इससे प्रहलाद को गर्भ में ही भक्ति का रंग लग गया ।
हिरण्यकशिपु के आने पर कयाधु घर आ गई । प्रहलाद का जन्म हुआ और पांच वर्ष का होने पर पिता ने अपने गुरु पुत्र शण्ड और अमर्क के यहां पढ़ने भेजा । वे भगवद् भक्ति पढ़ चुके थे । एक दिन पिता ने पूछा । तुमने पढ़ा उसमें जो अच्छी बात ही वह सुनाओ ।
प्रहलाद ने कहा – वह तो भगवद् भक्ति करना ही है । यह सुनकर पिता को क्रोध आ गया, वह प्रहलाद को मारने लगा । लोगों ने छुड़ाया । पिता ने कहा – फिर ऐसा कभी नहीं कहना किन्तु वे कब रुकने वाले थे । जब राम नाम नहीं छोड़ा तो पिता ने प्रहलाद को मारने के लिये शूली चढानादि अनेक उपाय किये किन्तु प्रहलाद का कुछ न बिगड़ा । गुरु पुत्रों ने कृत्या छोड़ी उससे गुरु पुत्र ही मारे गये ।
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*पद्यार्थ* – भक्त प्रहलाद को धन्य है, जिसने होनहार भक्ति की दृढ़ता के लिये राम नाम नहीं छोड़ना रूप वाद किया था और प्रकट रूप में कहा था कि – ‘मेरा शरीर चाहे आज ही चला जाय किन्तु मैं राम नाम उच्चारण करने की टेक कभी नहीं छोडूंगा ।
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पिता ने प्रहलाद के शरीर को अग्नि में डाला तो भी उसके मन में एक ही प्रण था कि – राम नाम नहीं छोडूंगा । भगवद्भजन बिना शरीर किस काम का है? चाहे जल जाय इसकी मुझे चिन्ता नहीं है ।
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पिता ने जल में डालकर तथा पृथ्वी में दबाकर और भी अनेक कष्ट देकर देखा । किन्तु प्रहलाद की रक्षा हर समय भजन बल से होती रही थी । वह सत्य स्वरूप परमात्मा की शरण होकर निरन्तर राम नाम जपते थे ।
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असुर हिरण्यकशिपु के बैर भाव से भगवान् ने प्रहलाद की रक्षा के लिये नरसिंह रूप धारण किया था । उन महा बलवान्१ नृसिंह भगवान् के भुजा बल से भक्त प्रहलाद की विजय हुई और विरोधी हिरण्यकशिपु मारा गया ।
(क्रमशः)

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