बुधवार, 14 अप्रैल 2021

*अकलि चेतन का अंग १४९(५/८)*

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*दादू समर्थ सब विधि सांइयाँ, ताकी मैं बलि जाऊँ ।*
*अंतर एक जु सो बसै, औरां चित्त न लाऊँ ॥*
*दादू मार्ग महर का, सुखी सहज सौं जाइ ।*
*भवसागर तैं काढ कर, अपणे लिये बुलाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अकलि चेतन का अंग १४९*
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अकलि१ इनायत२ अकल की३, आतम कन४ आवै ।
काया माया मांड में, दिल दुख नहिं पावै ॥५॥
ज्ञान१ कला रहित ब्रह्म३ की कृपा२ से ही जीवात्मा के पास४ हृदय में आता है, फिर शरीर के दु:खों से और ब्रह्म ब्रह्माण्ड में मायिक पदार्थो के संयोग - वियोग से हृदय दु:खी नहीं होता ।
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धरे१ अधर२ बिच अजब है, अकलि३ अमोलक अंग४ ।
रज्जब लहिये रहम५ सौं, अविगत६ देय उमंग७ ॥६॥
मायिक१ संसार और ब्रह्म२ इन दोनों के बीच में ज्ञान४ का स्वरूप५ अदभुत३ और अमूल्य वस्तु है । आनन्द की लहर८ में आकर परमात्मा७ देते हैं तब उनकी दया६ से ही यह प्राप्त होता है ।
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रज्जब इस आकार में, अकलि१ अगम२ आधार ।
जिहिं विलंब३ वेत्ता४ चढै, शिर सारे५ संसार ॥७॥
इस आकारवान् संसार में ज्ञान१ ही महान्२ आधार है, जिसका आश्रय३ लेकर ज्ञानी४ जन संपूर्ण५ संसार के शिर पर चढ़ते हैं अर्थात सांसारिक भावनाओं से ऊपर उठकर ब्रह्म में लय होते हैं ।
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आदम१ मांहिं अकलि२ का, अजब३ अनूपम ठाट४ ।
गहण सहित चौदह विद्या, लहै सबनि की बाट ॥८॥
मनुष्य१ में बुद्धि२ रूप सजावट४ अदभुत३ और अनुपम है, जिसके द्वारा मनुष्य ग्रहण के सहित चौदह विद्याओं तथा अन्य सभी जानने का मार्ग प्राप्त करता है अर्थात सभी बुद्धि से ही जाने जाते हैं ।
(क्रमशः)

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