गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

*अज्ञान अचेत का अंग १५०(१/४)*

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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।*
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अज्ञान अचेत का अंग १५०*
इस अंग में अज्ञान द्वारा अचेत जन विषयक विचार कर रहे हैं ~
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अचेत न जाने आपको, पर हि पिछाणे नांहिं ।
रज्जब रुचे न राम को, जीवत मूवों मांहिं ॥१॥
अज्ञान से असावधान हुआ प्राणी अपने स्वरूप को भी नहीं जानता और प्रभु को भी नहीं पहचानता ऐसा प्राणी राम को प्रिय नहीं होता, वह जीवित भी मुरदों की संख्या में ही है ।
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सो धी१ बिना सूते सबै, मेलि२ सु निर्णय नैन ।
रज्जब राम न सूझ३ ही, जीवित मूये ऐन४ ॥२॥
उस ब्रह्म ज्ञान युक्त बुद्धि४ के बिना सब निर्णय रूप नेत्रों को मींच२ कर सो रहे हैं, इससे उन्हें राम नहीं दीखते३, वे जीवित भी सर्वथा४ मुरदों की गणना में ही हैं ।
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अचेत१ आतमा अंध गति२, तन मन तम भरपूर ।
रज्जब राम न सूझ ही, बाहिर भीतर सूर ॥३॥
अज्ञानी१ प्राणी अंधे के समान२ है, उसके तन मन में अज्ञान रूप अंधेरा पूर्ण रूप से भरा है । जैसे अंधे को बाहर सूर्य नहीं दीखता वैसे ही उसे भीतर स्थित राम नहीं दीखता ।
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रज्जब अंड अचेत१ गति२, कहु आरंभ३ क्या होय ।
भजन भोग दोन्यों नहीं, देखो दृष्टि सु जोय४ ॥४॥
अज्ञानी१ अंडे के समान२ है, कहो अंडे से क्या कार्य३ होता है ? वैसे ही जो४ अज्ञानी है उसे भी दृष्टि से देखो, उससे भजन तथा भोग दोनों ही नहीं होते ।
(क्रमशः)

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