रविवार, 4 अप्रैल 2021

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*दादू शब्दैं बँध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाइ ।*
*शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु --- माता पिता की भक्ति
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जो माता अपने पुत्रों को बचपन में सुन्दर सुन्दर शिक्षा देकर विद्वान, धर्मात्मा और वीर बनाने का यत्न नहीं करती तथा अपनी बालिकाओं में नारी धर्म सिखाकर पतिव्रता होने की नीव नहीं डालती वह माता कैसी माता है वह तो अहिनी सम(सर्पणी के समान, सर्पणी अपने अंडों को आप ही खा जाती है) अपनी संतति को परमार्थ से आप ही नष्ट भ्रष्ट करती है । इसलिये माता का कर्तव्य है कि वह अपनी संतानों को बचपन में ही सुन्दर सुन्दर शिक्षा देकर कुमार्ग से धृणा करा दे ।
बुध धर्मात्मा भट सती, जने न कस सो मात ।
वह अहिनि सम आप ही,अपनी संतति खात ॥२४॥

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