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*सब काहू के होत हैं, तन मन पसरैं जाइ ।*
*ऐसा कोई एक है, उलटा मांहिं समाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*मन का अंग १५२*
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बहुत ज्ञान गुण सीख ले, जीव न जाने साध ।
रज्जब रहै न उस मतै, बहुरि करै अपराध ॥२१॥
मन बहुत गुण और ज्ञान सीख लेता है किंतु इससे इस मन को कोई साधु न समझ ले, यह सीखे हुये सिद्धान्त में स्थिर नहीं रहता, सीख करके फिर भी पाप करता रहता है ।
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यहु मन चंचल चोरटा, ठिक ठाहर कोउ नांहिं ।
रज्जब बात भली कहै, बहुत बुराई माँहिं ॥२२॥
यह मन बड़ा चंचल और चोर है, इसका ठीक ठिकाना कोई नहीं है । यह बातें तो अच्छी अच्छी करता है किंतु भीतर बहुत बुराईयां रहती हैं ।
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माँ बेटी मन के नहीं, बाई बहन न कोय ।
जन रज्जब पशु की विरति, सब करि देखै जोय१ ॥२३॥
मन के भीतर माता, पुत्री, बाई, बहिन का संबध नहीं रहता, उसकी पशु जैसी वृत्ति होती है । यह सभी को स्त्री१ करके देखता है ।
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आँख्यों ऐन१ अनंग२ मग३, मुँहड़े४ बाई मात ।
माँही मिहरी५ करि गया, रज्जब मन की घात६ ॥२४॥
मन मुख४ से तो माता बहिन बोलता है किन्तु भीतर से सबको नारी५ कर लेता है और आँखों से ठीक१ काम२ का ही मार्ग३ ग्रहण करता है अर्थात कामुक दृष्टि से ही देखता है । यह मन ऐसा ही दांव६ खेलता रहता है ।
(क्रमशः)
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