बुधवार, 5 मई 2021

*ब्राह्मभक्तों के संग में । अहंकार । दर्शन का लक्षण*

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*दादू मैं मैं जाल दे, मेरे लागो आग ।*
*मैं मैं मेरा दूर कर, साहिब के संग लाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*ब्राह्मभक्तों के संग में । अहंकार । दर्शन का लक्षण*
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अब पत्तल पड़ रहे हैं - दक्षिणवाले बरामदे में । श्रीरामकृष्ण महिमाचरण से कह रहे हैं, “तुम एक बार जाओ, देखो वे सब क्या कर रहे हैं । और तुमसे मैं कह नहीं सकता, परन्तु जी में आ जाय तो परोस भी देना ।" "सामान ले आया जाय, परोसने की बात तो तब है !" - यह कहकर महिमाचरण लम्बे डग से दालान की ओर चले गये, फिर कुछ देर बाद लौटकर आ गये । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक भोजन कर रहे हैं ।
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भोजन के पश्चात् घर में आकर विश्राम करने लगे । भक्तगण भी दक्षिणवाले तालाब में हाथ-मुँह धोकर पान खाते हुए फिर श्रीरामकृष्ण के पास आ गये । सब ने आसन ग्रहण किया ।
दो बजे के बाद प्रताप आये । ये एक ब्राह्मभक्त हैं । आकर श्रीरामकृष्ण को नमस्कार किया । श्रीरामकृष्ण ने भी सिर झुकाकर नमस्कार किया । प्रताप के साथ बहुत सी बातें हो रही हैं ।
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प्रताप - मैं दार्जिलिंग गया था ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु तुम्हारा शरीर उतना सुधर नहीं पाया । जान पड़ता है, कोई बीमारी हो गयी है ।
प्रताप - जी, केशव को जो बीमारी थी, वही मुझे भी है । उन्हें भी यही बीमारी थी ।
केशव की दूसरी बातें होने लगीं । प्रताप कहने लगे, केशव का वैराग्य उनके बचपन से ही जाहिर हो रहा था । उन्हें खेलते-कूदते हुए लोगों ने बहुत कम देखा है । हिन्दू कॉलेज में पढ़ते थे । उसी समय सत्येन्द्र के साथ उनकी बड़ी मित्रता हो गयी और उसी कारण श्रीयुत देवेन्द्रनाथ ठाकुर से उनकी मुलाकात हुई । केशव में दोनों बातें थीं, योग भी और भक्ति भी । कभी कभी उनमें भक्ति का इतना उद्रेक होता था कि वे मूर्छित हो जाते थे । गृहस्थों में धर्म लाना उनके जीवन का प्रधान उद्देश्य था ।
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महाराष्ट्र देश की एक स्त्री के सम्बन्ध में बातचीत होने लगी ।
प्रताप - हमारे देश की कुछ महिलाएँ विलायत गयी थीं । महाराष्ट्र देश की एक महिला विलायत गयी थीं । वे खूब पण्डिता हैं; परन्तु ईसाई हो गयी हैं । आपने क्या उनका नाम सुना है ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, परन्तु तुम्हारे मुख से जैसा सुन रहा हूँ, इससे जान पड़ता है, उसे प्रसिद्धि तथा सम्मान प्राप्ति की इच्छा है । इस तरह का अहंकार अच्छा नहीं । 'मैने किया' यह अज्ञान से होता है । 'हे ईश्वर तुम्हीं ने ऐसा किया', यही ज्ञान है । ईश्वर ही कर्ता हैं, और सब अकर्ता ।
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"मैं-मैं करने से कितनी दुर्गति होती है, इसका ज्ञान बछड़े की अवस्था सोचने पर हो जाता है । बछड़ा 'हम्मा हम्मा' (मैं, मैं) किया करता है । उसकी दुर्गति देखो । बड़ा होने पर उसे सुबह से शाम तक हल जोतना पड़ता है - चाहे धूप हो, चाहे वृष्टि । कभी कसाई के हाथ गया कि उसने उसकी बिलकुल ही सफाई कर दी । मांस लोगों के पेट में चला गया और चमड़े के जूते बने । 
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आदमी उन पर पैर रखकर चलता है । इतने पर भी दुर्गति की इति नहीं होती । चमड़े से जंगी ढोल मढ़े गये और लकड़ी से लगातार वह पीटा जाने लगा । अन्त में अँतड़ियों को लेकर ताँत बनायी गयी । जब धुनिये के धनुए में वह लगा दी जाती है और वह रुई धुनता है तब वह 'तू-ऊं- तूं-ऊं' कहने लगता है । तब 'हम्मा हम्मा' नहीं कहता । जब 'तूं-ऊं-तूं-ऊं' कहता है, तब कहीं निस्तार पाता है । तब मुक्ति होती है । कर्म-क्षेत्र में फिर नहीं आना पड़ता।
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"जीव भी जब कहता है, 'हे ईश्वर, मैं कर्ता नहीं हूँ, कर्ता तुम हो - मैं यन्त्र मात्र हूँ, परिच्छेद ८२
हूँ, यन्त्री तुम हो, तब जीव संसार-यन्त्रणाओं से मुक्ति पाता है । तभी उसकी मुक्ति होती है, फिर इस कर्मक्षेत्र में उसे नहीं आना पड़ता ।"
एक भक्त - जीव का अहंकार कैसे दूर हो ?
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श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के दर्शन के बिना अहंकार दूर नहीं होता । यदि किसी का अहंकार मिट गया हो, तो उसे अवश्य ही ईश्वर के दर्शन हुए होंगे ।
भक्त - महाराज, किस तरह समझ में आये कि ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं ?
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर-दर्शन के कुछ लक्षण हैं । श्रीमद्भागवत में कहा है, जिस आदमी को ईश्वर के दर्शन हुए हैं उसके चार लक्षण हैं - बालवत्, पिशाचवत्, जड़वत् तथा उन्मत्तवत् ।
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"जिसे ईश्वर के दर्शन हुए होंगे, उसका स्वभाव बालक की तरह का हो जायेगा । वह त्रिगुणातीत हो जाता है । किसी गुण को गाँठ नहीं बाँधता, शुचि और अशुचि भी उसके पास बराबर हैं । इसीलिए वह पिशाचवत् है, और पागल की तरह कभी हँसता है, कभी रोता है । देखते ही देखते बाबुओं की तरह सजावट कर लेता है और फिर सब कपड़े बगल में दबाकर बिलकुल नंगा होकर घूमता है, इस तरह वह उन्मत्तवत् हो जाता है । और कभी यही है कि जड़ की तरह कहीं चुपचाप बैठा हुआ है, इसलिए जड़वत् ।”
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भक्त - ईश्वर-दर्शन के बाद क्या अहंकार बिलकुल चला जाता है ?
श्रीरामकृष्ण - कभी कभी वे अहंकार बिलकुल पोंछ डालते हैं, जैसे समाधि की अवस्था में । कभी अहंकार कुछ रख भी देते हैं, परन्तु उस अहंकार में दोष नहीं । जैसे बालक का अहंकार । पाँच वर्ष का बच्चा मैं-मैं करता है, परन्तु किसी का अनिष्ट करना वह नहीं जानता ।
"पारस पत्थर के छू जाने पर लोहा भी सोना हो जाता है । लोहे की तलवार सोने की तलवार हो जाती है । परन्तु तलवार का आकार मात्र रह जाता है, वह किसी का अनिष्ट नहीं कर सकती ।'
(क्रमशः)

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