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*दादू राम मिलन के कारणे, जे तूँ खरा उदास ।*
*साधु संगति शोध ले, राम उन्हीं के पास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)
*भवनाथ, महिमा आदि भक्तों के साथ हरिकथा-प्रसंग*
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श्रीरामकृष्ण हॉलवाले कमरे में आये । उनके बैठने के आसन के पास एक तकिया लगा दिया गया । श्रीरामकृष्ण ने बैठते समय ‘ॐ तत् सत’ इस मन्त्र का उच्चारण करके तकिये को स्पर्श किया । विषयी लोग इस बगीचे में आया-जाया करते हैं और ये सब तकिये वे अपने काम में लाते हैं, इसीलिए शायद श्रीरामकृष्ण ने उस मन्त्र का उच्चारण कर तकिये को शुद्ध कर लिया । भवनाथ, मास्टर आदि उनके पास बैठे हैं ।
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समय बहुत हो गया है, परन्तु भोजन आदि का बन्दोबस्त अभी तक नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण बालक स्वभाव हैं । कहा, 'क्यों जी, अभी तक कुछ देता क्यों नहीं ? नरेन्द्र कहाँ है ?’
एक भक्त - (श्रीरामकृष्ण के प्रति, सहास्य) - महाराज, अध्यक्ष रामबाबू हैं, वे ही सब देखभाल करते हैं । (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - राम अध्यक्ष है, तब तो हो चुका ।
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एक भक्त - जी रामबाबू जहाँ अध्यक्ष होते हैं, वहाँ प्रायः यही हाल हुआ करता है । (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - सुरेन्द्र कहाँ है, अहा, सुरेन्द्र का स्वभाव बहुत ही अच्छा हो गया है । बड़ा स्पष्टवक्ता है, बोलते समय किसी से दबता नहीं । और देखो, मुक्तहस्त भी है । कोई उसके पास सहायता के लिए जाता है, तो उसे खाली हाथ नहीं लौटाता । (मास्टर से) तुम भगवानदास के पास गये थे, उनके बारे में क्या राय है ?
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मास्टर - जी, मैं कालना गया था । भगवानदास बहुत वृद्ध हो गये हैं, रात में भेंट हुई थी । जाजम पर लेटे हुए थे । एक आदमी प्रसाद ले आया और खिलाने लगा । जोर से बोलने पर सुनते हैं । आपका नाम सुनकर कहने लगे, तुम लोगों को अब क्या चिन्ता है ?
"उस घर में नाम-ब्रह्म की पूजा होती है ।"
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भवनाथ - (मास्टर से) - आप बहुत दिनों से दक्षिणेश्वर नहीं गये । वे दक्षिणेश्वर में मुझसे आपके सम्बन्ध में पूछताछ किया करते थे और कहा था, मास्टर को अरुचि हो गयी क्या ?
यह कहकर भवनाथ हँसने लगे । श्रीरामकृष्ण दोनों की बातचीत सुन रहे थे, फिर मास्टर की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखकर बोले, "क्यों जी, बहुत दिन तक तुम वहाँ गये क्यों नहीं ?”
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मास्टर इसका कुछ जवाब न दे सके । इसी समय महिमाचरण आ पहुंचे । महिमाचरण काशीपुर में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण पर इनकी बड़ी भक्ति है और सर्वदा ये दक्षिणेश्वर आया-जाया करते हैं । ब्राह्मण के लड़के हैं, कुछ पैतृक सम्पत्ति भी है । स्वाधीन रहते हैं, किसी की नौकरी नहीं करते । सारे समय शास्त्राध्ययन और ईश्वर चिन्तन किया करते हैं । कुछ पाण्डित्य भी है, अंग्रेजी और संस्कृत के बहुत से ग्रन्थों का अध्ययन किया है ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, महिमाचरण से) - यह क्या ! यहाँ तो जहाज आ गया ! (सब हँसते हैं ।) इन सब स्थानों में तो डोंगे ही आ सकते हैं, यह तो एकदम जहाज आ गया । (सब हँसे।) परन्तु एक बात है । यह आषाढ़ का महीना है । (सब हँसते हैं ।)
महिमाचरण के साथ कितनी ही तरह की बातें हो रही हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (महिमा के प्रति) - अच्छा, बताओं, लोगों को खिलाना एक तरह से उन्हीं की सेवा नहीं है ? - सब जीवों के भीतर वे अग्नि के रूप से विराजमान हैं । खिलाना अर्थात् उनमें आहुति देना ।
"परन्तु इसलिए बुरे आदमी को न खिलाना चाहिए - ऐसे आदमी जिन्होंने व्यभिचार आदि महापातक किया हो । घोर विषयासक्त आदमी जहाँ बैठकर भोजन करते हैं, वहाँ सात हाथ तक की मिट्टी अपवित्र हो जाती है । "हृदय ने सिऊड़ में एक बार कुछ आदमियों को भोजन कराया था । उनमें अधिकांश मनुष्य बुरे थे । मैंने कहा, 'देख हृदय, उन्हें अगर तू खिलायेगा तो मैं तेरे घर एक क्षण भी न ठहरूँगा ।' (महिमा से) - अच्छा, मैंने सुना है, पहले लोगों को तुम बहुत खिलाते-पिलाते थे । अब शायद खर्च बढ़ गया है !" (सब हँसते हैं ।)
(क्रमशः)
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