मंगलवार, 4 मई 2021

*मन का अंग १५२(१७/२०)*

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*दादू माया कारण जग मरै, पीव के कारण कोइ ।*
*देखो ज्यों जग परजलै, निमष न न्यारा होइ ॥*
*काल कनक अरु कामिनी, परिहर इन का संग ।*
*दादू सब जग जल मुवा, ज्यों दीपक ज्योति पतंग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
https://youtu.be/6mHpPdQ8cdM
===============
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*मन का अंग १५२*
.
मन न होय भगवंत का, परमोधत१ गई आव२ ।
रज्जब रामति३ रमण की, ले ले आवै भाव ॥१७॥
उपदेश१ करते करते संपूर्ण आयु२ चली गई किंतु मन भगवान का नहीं बनता, संसार में विचरते३ हुये विषय में रमण करने के भावों को ही ले ले कर आगे आता है अर्थात विषय भोगने के मनोरथ ही करता रहता है ।
.
मन बेगारी शिर धर्या, नाम निजरंन बोझ ।
सो रज्जब डार्यों खुशी, ऐसा जंगली रोझ ॥१८॥
जैसे बेगारी के शिर पर बेगार का बोझ होता है, उसको डालने से ही उसे प्रसन्नता होती है । वैसे ही मन को निरंजन राम के नाम का बोझ लगता है, उसे छोड़कर विषयों में जाता है, तब ही प्रसन्न होता है । यह मन ऐसा जंगली रोझ पशु के समान मूर्ख है ।
.
मन कच्छप तन कूप गति, जब तक करै विनाश ।
रज्जब एक हिं ढाहि१ कर, दूजे में परकाश२ ॥१९॥
जैसे कूप में कछुवा रहता है वैसे ही मन शरीर में रहता है । कछुवा जब तब किसी जल जंतु को नष्ट१ करता है तो और जल जंतु प्रकट हो जाता है । वैसे ही मन एक विषय को पटक कर दूसरे में प्रकट हो जाता है अर्थात दूसरे विषय को भोगने लगता है ।
.
सकल विकारों में खुशी, यह मन की रस रीति ।
जन रज्जब कहि कहि मुवा१, हरि सौं करे न प्रीत ॥२०॥
मन को रस आने वाली रीति यही है कि - इसे विकारों में रक्खा जाय१ यह सभी विकारों में प्रसन्न रहता है । हम मन को कह कह कर थक गये हैं किंतु यह हरि से प्रीति नहीं करता ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें