मंगलवार, 4 मई 2021

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*परमेश्वर के भाव का, एक कणूँका खाइ ।*
*दादू जेता पाप था, भ्रम कर्म सब जाइ ॥*
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साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---विचार
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कणाद मुनि संग्रह को विचार में विध्न जान करके कुछ तो संग्रह नहीं करते थे । सदा खेतों में से कण(दाने) चुन कर खा लेते थे । इसी से उनका नाम कणाद(कण खानेवाला) हुआ था । इससे सूचित होता है कि अति संग्रह करने से विचार में विध्न होता है ।
संग्रह होत विचार में, विध्न यहां न विवाद ।
इस कण से ही रहे, सदा कणाद रुणाद ॥१५॥

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