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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.४१)*
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राग जंगली गौड़ी
४१. पहरा (पंजाबी भाषा) । कहरवा ताल (बाल्यावस्था)
पहले पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ आया इहि संसार वे ।
मायादा रस पीवण लग्गा, बिसार्या सिरजनहार वे ।
सिरजनहार बिसारा किया पसारा, मात पिता कुल नार वे ।
झूठी माया आप बँधाया, चेतै नहीं गँवार वे ।
गंवार न चेते, अवगुण केते, बँध्या सब परिवार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ आया इहि संसार वे ॥१॥
(तरुण अवस्था)
दूजे पहरै रैणि दे, बणिजारिया, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ।
माया मोह फिरै मतवाला, राम न सक्या संभाल वे ।
राम न संभाले, रत्ता नाले, अंध न सूझै काल वे ।
हरि नहीं ध्याया, जन्म गँवाया, दह दिशि फूटा ताल वे ।
दह दिशि फूटा, नीर निखूटा, लेखा डेवण साल वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ॥२॥
(प्रौढ अवस्था)
तीजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तैं बहुत उठाया भार वे ।
जो मन भाया, सो कर आया, ना कुछ किया विचार वे ।
विचार न कीया नाम न लीया, क्यों कर लंघै पार वे ।
पार न पावे, फिर पछितावे, डूबण लग्गा धार वे ।
डूबण लग्गा, भेरा भग्गा, हाथ न आया सार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तैं बहुत उठाया भार वे ॥३॥
वृद्धावस्था जर्जरी भूत (वृद्धावस्था)
चौथे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ पक्का हुआ पीर वे ।
जोबन गया, जरा वियापी, नांही सुधि शरीर वे ।
सुधि ना पाई, रैणि गँवाई, नैंनहुँ आया नीर वे ।
भव-जल भेरा डूबण लग्गा, कोई न बंधै धीर वे ।
कोई धीर न बंधे जम के फंधे, क्यों कर लंघे तीर वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ पक्का हुआ पीर वे ॥४॥
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भा० दी०-व्यवहारकृद्वणिक ! (विणजारा) अधुना संसारेऽस्मिन् समायातोऽसि । आयुष: प्रथमचरणे बाल्य एव प्रभुं विस्मृत्य मायारसे कथं निमग्नोऽसि ! मातृपितृस्नेहने कुटम्बिजन प्रेरणा चात्मानमपि विस्मृतवानसि । स्वस्य स्वयमेव बन्धनं त्वया कृतम् । हे मूर्ख जीव ! सचेतनीभूय पश्य, कियन्तो दोषास्त्वयाकृताः । स्वाज्ञानदोषेणैव परिवारस्नेहाकर्षणे निबद्धोऽसि त्वम् । चञ्चलमतिर्वपुर्दधानः स्वसंकल्पाभिलषितान् भावानप्राप्याऽतिखिद्यसे ।
हे जीवात्मन् ! आयुषो द्वितीयचरणे यौवनस्य प्रथमचरण एवाङ्गनासङ्गेन दुःखाहुःखान्तरमाप्नोसित्वम् । किं रामोऽपि विस्मृत स्त्वया । किमन्धोऽसि येन सन्मुखमुपस्थितं कालमपि न पश्यसि ! गन्धर्वनगरप्रख्यं यौवनं ते सर्वदोषकरं, कामपिशाचेन सर्वं ते वीर्यजातं दूषितम् । यौवनमपि क्षणमात्रमनोहरं क्षीणप्राय मिति किं न बुध्यसे ? यदा तव जीवनस्य गणना भविष्यतितदात्वं किं वक्ष्यसि यमराजसन्मुखे ? युवितजनसंगेन त्वया सर्वस्वं नाशितम् । अधुना तु योषितां सङ्गाद् विरम । हे वनेचर वणिक् ?
युवावस्थायांममताया भूयान् भार स्थापितस्त्वया । इमे मे दायदा (वन्धवः) इमौ मे पितरौ इदं मे धनं भवनमिति । तेषां पालन-पोषण-चिन्तया नितान्तं क्लिश्यसि । ममत्वातिशयेन पीडित: शुभाशुभमपि न पश्यसि ! नच हरिनाम स्मरसि । नच त्वया स्वात्माऽपि विचारितः । त्वमेव वद कथं संसारसागर मुत्तरिष्यसि । यथा यथा यौवनस्य परां कोटि माटीकसे, तथा तथा सज्वरा: कामास्ते नाशाय वल्गन्ति । यदा संसार सागरे मह्यसि, तदा श्चात्तापमनुभविष्यसि । तदा धैर्यनाशान्न कोऽपि ते सहायकः स्थास्यति । एवं क्रमेण जराजर्जरितः संसारदुःख मनुभवन् वृद्धो भविष्यसि । तदा जराजीर्णकलेवरं दृष्ट्वा कामिन्य स्तं पुरुषं करभा इव पश्यन्ति ।
दासा: पुत्राः स्त्रियश्चवार्धक्यव्यथितं
नरं दृष्ट्वोन्मत्तप्रलापिकं मन्यमाना उपहसन्ति ।
किं बहुना वृद्ध स्वशरीरमपि विस्मरति । तदा ते
नेत्राभ्यामश्रुधारा प्रवहति । बुद्धिरपि मलिनीभवति ।
स्पृहाऽपि वार्धक्येऽभिवर्धते । कोऽहंवराक:
किमिव करोमि ! कथ मेवं तिष्ठामि !
इत्येवं सततं दीनतादुःखं दीन: सन् सहते ।
यदा यमपाशैशवध्यमा नोयमदूतै र्यमलोकं नीयमानश्चिन्तयति हा कष्टं, मया किमनुष्ठितम् । को मारक्षयिष्यति ! न मया प्रभुः स्मृतो: नरकेऽवश्यं पतिष्यामिति बारं बारं स्मरति । अत: सर्वै रपि सावधानेन हरिः स्मर्तव्यः ।
उक्तंहि वासिष्ठे-
किं तेनदुर्जीवितदुराग्रहेण जरागतेनाऽपि हि जीव्यते यत् ।
जरा जगत्यामजिता जनानां सर्वैषणा स्तात निराकरोति ॥
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हे जीव रूप बणिजारे ! तू अब इस संसार में आया है । आयु के प्रथम चरण बाल्यकाल में ही प्रभु को भूल कर माया रस में डूब गया । माता-पिता के तथा अन्य कुटुम्बिजनों के प्रेम में बंध कर अपने आत्मा को भी भुला दिया । जीव अपना बन्धन अपने आप ही बना लेता है । हे मूर्ख जीव ! सावधान होकर देख, अपने ही अज्ञान से परिवार में बंध कर तूने कितने अवगुण(पाप) कर डाले ?
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चंचल बुद्धि तथा इस चंचल बाल्य शरीर को धारण करके अपने मानसिक संकल्पों को पाने की इच्छा करता है, उनको न पाने से तेरी बुद्धि सदा संतप्त रहती है । हे जीव ! आयु का जो दूसरा भाग यौवन है अब तू उस यौवन अवस्था में पहुँच गया है । तुम इस यौवन को भी अपने पतन का ही कारण समझो ।
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हे जीव ! तू इस यौवन के आते ही नारी के संग से दुःख परम्परा में पड़ गया है । स्त्री का जब से संग किया है, तब से ही तू माया से मोहित होकर राम को भी भूल गया है । क्या तू अन्धा है, जो शिर पर खड़े हुए काल को भी नहीं देख रहा है ? यह यौवन दोषों से भरा है, सुरामद के समान दोषों की खान है । इस काम-रूपी पिशाच ने तेरा वीर्य रूपी जल नष्ट कर डाला हैं । संयम रूपी सरोवर के नष्ट हो जाने से तेरा शारीरिक बल, इन्द्रिय-सामर्थ्य भी प्रायः नष्ट चुके हैं ।
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क्या तू यह नहीं जानता कि यह यौवन चिर-स्थायी नहीं है । किन्तु मनोहरण करने वाला क्षण भंगुर है । जब तेरे जीवन का लेखा लिया जायगा तब तू यमराज के समक्ष क्या कहेगा ? अब मैं तुझे समझा रहा हूं कि तू ने युवतियों के संग से अपना सर्वस्व नष्ट कर दिया है । अतः अब इनसे अलग रहकर विश्राम कर । हे बणिजारे जीव ! तुम ने इस यौवन में अपने शिर पर “ये मेरे लड़के, ये माता-पिता, यह धन, भवन, इस प्रकार ममता का भार बहुत लाद लिया है ।
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और इनके लालन पालन की चिन्ता में दुःखी हो रहा है । इस ममता भार से पीड़ित होकर शुभ अशुभ का भी विचार नहीं किया और न भगवान् का चिन्तन ही किया । अतः तुम ही कहो कि इस संसार से पार कैसे जाओगे । जब जब यौवन अपनी चरम सीमा पर आरूढ होता है, तब तक सन्ताप-युक्त कामनायें केवल तेरे विनाश के लिये नृत्य करने लगती है । जब संसार-सागर में डूबने लगेगा तब तुम पश्चाताप करोगे ।
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उस समय तुम्हारा धैर्य भी नष्ट हो जायगा, कोई तेरी सहायता नहीं करेगा । इस तरह संसार में सांसारिक दुःखों का अनुभव करते करते वृद्धावस्था आ जाती है । इस बुढापे में स्त्रियाँ जरा से जीर्ण शरीर को देखकर वृद्ध ऊंट की तरह देखने लगती हैं । दास, पुत्र और स्त्रियाँ बुढापे के कारण कांपते हुए शरीर को देख कर उपहास करने लगती हैं ।
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बुढापे में वृद्ध पुरुष अपने शीर को भी नहीं संभाल सकता । नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगती है । बुद्धि भी मलिन हो जाती है । इच्छायें बढ़ जाती है । इस तरह बुढापें में जीव “मैं क्या करूं ? कहां जाऊं ? कैसे बैठूं ?” आदि दीनता के दुःखों को सहन करता रहता है । जब यम के दूत यम-पाशों में बांध कर ले जाते हैं तब वह सोच करने लगता हैं कि मैं बड़ा दुःखी हूं, मैंने यह क्या किया ? मेरी इस समय कौन रक्षा करेगा ? मैंने कभी भगवान् को भी नहीं भजा । अवश्य अपने कर्मों के कारण नरक में गिरूँगा । ” इस तरह रोने लगता है । अतः पहले से ही सावधान होकर भजन करना चाहिये ।
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योग वासिष्ठ में कहा है कि- हे तात ! जो वृद्ध होकर भी जीता है, उस दुष्ट जीवन के लिये दुराग्रह रखने से क्या लाभ है ? किसी से भी न जीती जाने वाली यह वृद्धावस्था मनुष्यों की संपूर्ण कामनाओं को नष्ट कर देती है ।
(क्रमशः)
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