शुक्रवार, 25 जून 2021

*समाधि में श्रीरामकृष्ण । प्रेमतत्त्व*

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*भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने कोइ ।*
*दादू भक्ति भगवंत की, देह निरन्तर होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*समाधि में श्रीरामकृष्ण । प्रेमतत्त्व*
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यह गाना गाते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तगण स्तब्ध भाव से निरीक्षण कर रहे हैं । कुछ देर बाद कुछ प्राकृत दशा के आने पर श्रीरामकृष्ण माता के साथ वार्तालाप करने लगे ।
"माँ, ऊपर से(सहस्रार से) यहाँ उतर आओ ! क्यों जलाती हो ! - चुपचाप बैठो ।
"माँ, जिसके जो संस्कार हैं, वे तो होकर ही रहेंगे । - मैं और इससे क्या कहूँ ? विवेक-वैराग्य के हुए बिना कुछ होता नहीं ।
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"वैराग्य कितने ही तरह के हैं । एक ऐसा है जिसे मर्कटवैराग्य कहते हैं, वह वैराग्य संसार की ज्वाला से जलकर होता है, वह अधिक दिन नहीं टिकता । और सच्चा वैराग्य भी है । एक व्यक्ति के पास सब कुछ है, किसी वस्तु का अभाव नहीं, फिर भी उसे सब कुछ मिथ्या जान पड़ता है ।
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“वैराग्य एकाएक नहीं होता । समय के आये बिना नहीं होता । परन्तु एक बात है, वैराग्य के सम्बन्ध में सुन लेना चाहिए । जब समय आयेगा, तब इसकी याद होगी कि हाँ, कभी सुना था ।
"एक बात और है । इन सब बातों को सुनते सुनते विषय की इच्छा थोड़ी थोड़ी करके घटती जाती है । शराब के नशे को घटाने के लिए थोड़ा थोड़ा चावल का पानी पिया जाता है । इस तरह धीरे-धीरे नशा घटता रहता है ।
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"ज्ञानलाभ करने के अधिकारी बहुत ही कम हैं । गीता में कहा है - हजारों आदमियों में कहीं एक उनके जानने की इच्छा करता है । और ऐसी इच्छा करनेवाले हजारो में से कहीं एक ही उन्हें जान पाता है ।"
तान्त्रिक भक्त - 'मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये' आदि ।
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श्रीरामकृष्ण - संसार की आसक्ति जितनी ही घटती जायगी, ज्ञान भी उतना ही बढ़ता जायगा । आसक्ति अर्थात कामिनी और कांचन की आसक्ति ।
"प्रेम सभी को नहीं होता । गौरांग को हुआ था । जीवों को भाव हो सकता है । बस ईश्वरकोटि को - जैसे अवतारों को - प्रेम होता है । प्रेम के होने पर संसार तो मिथ्या जान पड़ेगा ही, किन्तु इतने प्यार की वस्तु जो यह शरीर है, यह भी भूल जायगा ।
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"पारसियों के ग्रन्थ में लिखा है, चमड़े के भीतर मांस है, मांस के भीतर हड्डियाँ, हड्डियों के भीतर मज्जा, इसके बाद और भी न जाने क्या क्या; और सब के भीतर प्रेम !
"प्रेम से मनुष्य कोमल हो जाता है । प्रेम से कृष्ण त्रिभंग हो गये हैं ।
"प्रेम के होने पर सच्चिदानन्द को बाँधनेवाली रस्सी मिल जाती है । उसे पकड़कर खींचने ही से हुआ । जब बुलाओगे तभी पाओगे ।
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"भक्ति के पकने पर भाव होता है । भाव के पकने पर सच्चिदानन्द को सोचकर वह निर्वाक् रह जाता है । जीवों के लिए बस यहीं तक है । और फिर भाव के पकने पर महाभाव या प्रेम होता है । जैसे कच्चा आम और पका हुआ आम ।
“शुद्धा भक्ति ही एकमात्र सार वस्तु है और सब मिथ्या है ।
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"नारद के स्तुति करने पर श्रीरामचन्द्र ने कहा, तुम वरदान लो । नारद ने शुद्धा भक्ति माँगी और कहा, हे राम, अब ऐसा करो जिससे तुम्हारी भुवनमोहिनी माया से मुग्ध न हो जाऊँ । राम ने कहा, यह तो जैसे हुआ, दूसरा वर माँगो ।
“नारद ने कहा, और कुछ न चाहिए, केवल भक्ति की प्रार्थना है ।
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“यह भक्ति भी कैसे हो ? पहले साधुओं का संग करना चाहिए । सत्संग करने पर ईश्वरी बातों पर श्रद्धा होती है । श्रद्धा के बाद निष्ठा है, तब ईश्वर की बातों को छोड़ और कुछ सुनने की इच्छा नहीं होती । उन्हीं के काम करने को जी चाहता है ।
"निष्ठा के बाद भक्ति है, इसके बाद भाव, फिर महाभाव और वस्तुलाभ ।
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"महाभाव और प्रेम अवतारों को होता है । संसारी जीवों का ज्ञान, भक्तों का ज्ञान और अवतार-पुरुषों का ज्ञान बराबर नहीं । संसारी जीवों का ज्ञान जैसे दीपक का उजाला है । उससे घर के भीतर ही प्रकाश होता है और वहीं की चीजें देखी जा सकती हैं । उस ज्ञान से खाना-पीना, घर-गृहस्थी का काम सम्हालना, शरीर की रक्षा, सन्तान-पालन, बस, यही सब होता है ।
(क्रमशः)

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