सोमवार, 21 जून 2021

*श्रीरामकृष्ण का प्रेम*

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*साधु समाना राम में, राम रह्या भरपूर ।*
*दादू दोनों एक रस, क्यों कर कीजै दूर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
यह कहते ही श्रीरामकृष्ण का प्रेम-पारावार उमड़ चला । वे गाने लगे । गाना सुनकर शशधर की आँखों में आँसू आ गये । गीतों का भाव यह है –
(१) यदि दुर्गा-दुर्गा कहते हुए मेरे प्राण निकलेंगे तो अन्त में इस दीन को तुम कैसे नहीं तारती हो, मैं देखूंगा । ब्राह्मणों का नाश करके, गर्भपात करके, मदिरा पीकर और स्त्री-हत्या करके भी मैं नहीं डरता । मुझे विश्वास है कि इतने पर भी मुझे ब्रह्मपद की प्राप्ति होगी ।
(२) शिव के साथ सदा ही रंग करती हुई तू आनन्द में मग्न है । सुधापान करके, तेरे पैर तो लड़खड़ा रहे हैं, पर, माँ, तू गिर नहीं जाती ।
.
अब अधर के गवैये वैष्णवचरण गा रहे हैं - भाव इस प्रकार है ।
(१) ऐ मेरी रसने, सदा दुर्गा-नाम का जप कर । बिना दुर्गा के इस दुर्गम मार्ग में और कौन निस्तार करनेवाला है ? तुम स्वर्ग हो, मर्त्य और पाताल हो । हरि, ब्रह्मा और द्वादश गोपाल भी तुम्हीं से हुए हैं; ऐ माँ, तुम दसों महाविद्याएँ हो, दस बार तुमने अवतार लिया है । अबकी बार किसी तरह मुझे पार करना ही होगा । माँ, तुम चल हो, अचल हो, तुम सूक्ष्म हो, तुम स्थूल हो, सृष्टि-स्थिति और प्रलय तुम हो, तुम इस विश्व की मूल हो । तुम तीनों लोक की जननी हो, तीनों लोक की त्राणकारिणी हो । तुम सब की शक्ति हो, तुम स्वयं अपनी शक्ति हो ।
.
इस गाने को सुनकर श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो गया । गाना समाप्त होने पर खुद गाने लगे । उनके बाद वैष्णवचरण ने फिर गाया । इस बार उन्होंने कीर्तन गाया । कीर्तन सुनते ही श्रीरामकृष्ण निर्बीज समाधि में लीन हो गये । शशधर की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी ।
श्रीरामकृष्ण समाधि से उतरे । गाना भी समाप्त हो गया। शशधर, प्रताप, रामदयाल, राम, मनमोहन आदि बालक भक्त तथा और भी बहुत से आदमी बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, तुम लोग कुछ छेड़ते क्यों नहीं ? (शशधर से कुछ पूछते क्यों नहीं ?)
.
रामदयाल - (शशधर से) - ब्रह्म की रूप-कल्पना शास्त्रों में है, परन्तु वह कल्पना करते कौन हैं ?
शशधर - ब्रह्म स्वयं । वह मनुष्य की कल्पना नहीं ।
प्रताप - क्यों, वे रूप की कल्पना क्यों करते हैं ?
श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा, वे इच्छामय जो हैं । वे किसी से सलाह करके कुछ थोड़े ही करते हैं ? क्यों वे करते हैं, इस बात से हमें क्या मतलब ? बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, आम खाओ - कितने पेड़ हैं, कितनी हजार डालियाँ हैं, कितने लाख पत्ते हैं, इस हिसाब से क्या काम ? वृथा तर्क और विचार करने से वस्तुलाभ नहीं होता ।
.
प्रताप - तो अब विचार न करें ?
श्रीरामकृष्ण - वृथा तर्क और विचार न करो । हाँ, सदसत् का विचार करो कि क्या नित्य है और क्या अनित्य - काम, क्रोध और शोक आदि के समय में ।
पण्डितजी - वह और चीज है, उसे विवेकात्मक विचार कहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, सदसत् विचार । (सब चुप हैं ।)
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - पहले बड़े बड़े आदमी आते थे ।
पण्डितजी - क्या धनी आदमी ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, बड़े बड़े पण्डित ।
.
इतने में छोटा रथ बाहर के दुमंजले वाले बरामदे में लाया गया । श्रीजगन्नाथ, बलराम और सुभद्रादेवी पर अनेक प्रकार की फूल-मालाएँ पड़ी हुई उनकी शोभा बढ़ा रही हैं । सब नये नये अलंकार और नये नये वस्त्र धारण किये हुए हैं । बलराम की सात्विक पूजा होती है । उसमें कोई आडम्बर नहीं किया जाता । बाहर के आदमियों को जरा भी खबर नहीं कि भीतर रथ चल रहा है ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें