सोमवार, 21 जून 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.३७

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.३७)*
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*३७ एकताल*
*मन मूरखा, तैं क्या किया ?*
*कुछ पीव कारण वैराग न लिया,*
*रे तैं जप तप साधी क्या दिया ॥टेक॥*
*रे तैं करवत काशी कद सह्या,*
*रे तूँ गंगा मांहीं ना बह्या,*
*रे तैं विरहनी ज्यों दुख ना सह्या ॥१॥*
*रे तैं पालै पर्वत ना गल्या,*
*रे तैं आप ही आपा ना दह्या,*
*रे तैं पीव पुकारी कद कह्या ॥२॥*
*होइ प्यासे हरि जल ना पिया,*
*रे तूँ वज्र न फाटो रे हिया ।*
*धिक् जीवन दादू ये जिया ॥३॥*
https://youtu.be/99XH7xHirwU
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भा० दी०-रे मूर्ख मनः ! वैराग्यमाश्रित्य प्रभुप्राप्त्यर्थ त्वया किमपि साधनं नानुष्ठितम् । कियान् ते प्रमादः । अन्यत्तु सर्व कृतं परं यत्करणीयं तत्तु विस्मृतम् । यतो ब्रह्मैव ध्येयम् तत्तु न ध्यातम् । नच जपसम्पत्तिःसाधिता, सा च तंत्रशास्त्र उक्ता- तथाहि-मनःसंहरणं शौचं मौनं मंत्रार्थचिन्तनम् । अव्यग्रत्वमनिर्वेदोजपसंपत्तिहेतवः । नच तपस्तप्तम् । तपसाऽपि ब्रह्म प्राप्यते । नच काशीमुपगम्य शिरच्छेदनदुःखं सह्यम् । नच गंगाप्रवाहे पतितम् । नच वियोगिनीव विरहव्यथादुःखं नियूंढम् । न हिमालयं गत्वा हिमीकृतं हिमेन शरीरम् । नच ज्ञानाग्नावहंकारो ज्वालित: । न हिव्यथितेनमनसा दीनत्राणपरायणंपरमात्मानं दर्शनं देहीति आर्त स्वरेण संवोध्य प्रार्थितम् । हे हृदय त्वं कथं न खण्डशो जातम् । अहो मया ज्ञातम् नूनंत्वं वज्रसारम् । धिक्ते जीवितम्, प्रभुभक्तिसाधनं विना कथं ते जीवनं व्यतीतम् । कथं न शकलीभूतम !
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हे मूर्ख मन ! वैराग्य धारण करके प्रभु प्राप्ति के लिये तू ने कुछ भी साधन नहीं अपनाये । यह तेरा कितना महान् प्रमाद है कि जो नहीं करना चाहिये, उन सब को किया और जो करना चाहिये, वह कुछ भी नहीं किया । हरि का ध्यान ही कर्तव्य है, वह तो किया नहीं और न जप-संपत्ति की साधना की ।
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तंत्र-शास्त्र में – मन का विषयों से संहरण, पवित्रता, मौन, मंत्रार्थ का विचार, अविकलता, अनिर्वेद, ये जप के साधन होने से जप संपत्ति कहलाती है । न किसी को कुछ दान दिया, काशी में जाकर काशी करवत भी नहीं ली, न गंगा के प्रवाह में पड़ कर स्नान किया । न वियोगिनी स्त्री की तरह कभी विरह-जन्य दुःख को सहा । हिमालय में जाकर बर्फ में नहीं गला । न ज्ञानाग्नि में अपने अहंकार को जलाया और व्यथित मन से “हे दीनत्रान परायण प्रभु ! मुझे दर्शन दीजिये ? ऐसी प्रार्थना भी नहीं की । प्यासा हो कर हरि भक्ति रूप जल का पान भी नहीं किया । हे हृदय ! तेरे तन के टुकड़े-टुकड़े क्यों नहीं हो गये । अहो मैंने जान लिया कि तू वज्र से भी कठोर है । अहो तेरे जीवन को धिक्कार है । प्रभु-भक्ति के बिना तूं कैसे जी रहा है ?
(क्रमशः)

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