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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.४३)*
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*४३. उपदेश पंजाबी । त्रिताल*
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*इत घर चोर न मूसै कोई,*
*अंतर है जे जानै सोई ॥टेक॥*
*जागहु रे जन तत्त न जाइ,*
*जागत है सो रह्या समाइ ॥१॥*
*जतन जतन कर राखहु सार,*
*तस्कर उपजै कौन विचार ॥२॥*
*इब कर दादू जाणैं जे,*
*तो साहिब शरणागति ले ॥३॥*
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भा० दी०-यस्यान्त:करणे गुरोः प्रसादाज्जीवब्रह्मणो रैक्यज्ञानं समुत्पन्नं भवति तस्य कामादिचोरा ज्ञानधनं चोरयितुं न प्रभवन्ति । कामादिविकारान् विनाश्यैव तदुत्पत्तेः । तस्माज्जानधनस्य चोरेभ्यःरक्षणाय साधकेनाविद्यानिद्रात उद्बोद्धव्यम् । अन्यथा क्षीणा अपि कामक्रोधादयः पुनरुत्पद्यन्ते ।
उक्तंहि-
काम-क्रोधौ-लोभ - मोही देहे तिष्ठन्ति तस्कराः । ज्ञानरत्नापहाराय तस्माज्जागृहि जागृहि ॥ यदा परात्मात्मविभेदभेदकं विज्ञानमात्मन्यवभासति भास्वरम् तदैव माया प्रविलीयेतेऽञ्जसा च सा सकारकाकारणमात्म संस्तेः॥ श्रुतिप्रमाणाभिविनाशिता च कथं भविष्यत्यपि कार्यकारिणी । विज्ञान मात्रादमलाद्वितीयात् तस्मादविद्या न पुन भविष्यति ॥१९॥
अध्यात्मरामायणे -
यदि स्म नष्टान पुन: प्रसूयते कर्ताऽहमस्येति मति: कथं भवेत्
तस्मात् स्वतंत्रा. न किमप्यपेक्षते विद्या विमोक्षाय विभाति केवला ॥२०॥
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जिसके अन्तःकरण में जीव ब्रह्म की एकता का बोधक अद्वितीय ज्ञान उत्पन्न हो गया है, वहां पर कामादि चोर ज्ञान-धन को नहीं चुरा सकते, क्योंकि ज्ञान कामादि दोषों को नष्ट करके ही पैदा होता है । अतः साधक को ज्ञान-धन की कामादि चोरों से रक्षा करने के लिये अविद्या निद्रा से सदा जागते रहना चाहिये अन्यथा अविद्या के कारण नष्ट हुए भी कामादि दोष फिर से उत्पन्न हो जाते हैं ।
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लिखा है कि – इस देह में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि चोर इस ज्ञान-धन को चुराने के लिये सदा बैठे ही रहते हैं । अतः साधक को सावधान रहना चाहिये । जिस समय परमात्मा और जीवात्मा के भेद को दूर करने वाला प्रकाश-मय विज्ञान अन्तःकरण में स्पष्टतया भासित होने लगता है, उसी समय आत्मा के लिये संसार प्राप्ति की कारण माया अनायास ही कारकादि के सहित लीन हो जाती है ।
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श्रुति-प्रमाण से उस को नष्ट कर देने पर भी वह अपना कार्य करने में किस प्रकार समर्थ हो सकेगी ? क्योंकि परमार्थ तत्त्व एक मात्र ज्ञान स्वरूप निर्मल अद्वितीय है । अतः बोध होने पर अविद्या फिर उत्पन्न नहीं होती । अतः ज्ञानवान् को ‘मैं कर्म का कर्ता हूं’ ऐसी बुद्धि कैसे होगी ? ज्ञान स्वतन्त्र है । उसे जीव के मोक्ष के लिये किसी कर्म की अपेक्षा नहीं होती । वह स्वयं ही अकेला उसके लिये समर्थ है ।
(क्रमशः)
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