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*सतगुरु बरजै सिष करै, क्यूँ कर बंचै काल ।*
*दहदिश देखत बह गया, पाणी फोड़ी पाल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रैदास जी की पद्य टीका*
*राम हि नन्द सु शिष्य भलो इक,*
*ब्रह्म सु चारि हु चूंन हि ल्यावै।*
*वैश्य कहै इक चूंन१ हमार हु,*
*ल्यो तुम बीसकबार सुनावै॥*
*मेह भयो तब वाहि पै ल्यावत,*
*भोग धऱ्यो हरि ध्यान न आवै।*
*रे किमि ल्यावत बूझ मँगावत,*
*ढेढ२ विसाहत३ शाप चलावे॥११६॥*
स्वामी रामानन्द जी के एक श्रेष्ठ ब्रह्मचारी शिष्य थे। वे गुरुजी की आज्ञा से आटा१ की भिक्षा लाया करते थे। भिक्षा अन्न पवित्र होता है। इससे स्वामी रामानन्द जी भिक्षान्न ही पाया करते थे, किसी एक का नहीं पाते थे।
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एक वैश्य आटा लाने वाले ब्रह्मचारी को कहता था। मेरे यहां से सीधा ले जाया करें। ऐसा उसने बीसों बार कहा था किन्तु गुरु आज्ञा भिक्षा लाने की ही थी। एक के यहां से लाने की नहीं थी। इसी से ब्रह्मचारी उससे नहीं लेते थे।
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एक दिन वर्षा हो रही थी, भिक्षा लाने में कठिनाई पड़ती थी, इससे ब्रह्मचारी उक्त वैश्य से सीधा ले आये। जब भगवान् के भोग लगाया गया तो स्वामी रामानन्दजी को ध्यान में भगवान् प्रति दिन के समान जीमते हुये नहीं दिखाई दिये।
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तब ब्रह्मचारी को पूछा - अरे आज आटा कैसे लाया है, भिक्षा करके नहीं लाया क्या? ब्रह्मचारी ने कहा - वर्षा वर्ष रही थी इससे एक वैश्य के यहां से ही ले आया था। स्वामीजी ने पता लगवाया वह क्या काम करता है। ज्ञात हुआ कि वह चमार के साथ कारबार करता है । यह जानकर गुरुजी ने कहा - तुमने मेरी आज्ञा नहीं मानी और चर्म का काम करने वाले का अन्न लाये हो, जाओ चमार ही हो जाओ। यह रैदासजी के पूर्व जन्म की कथा है।
(क्रमशः)
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