गुरुवार, 26 जून 2014

२७९. काहे रे बक मूल गँवावै

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२७९. त्रिताल
काहे रे बक मूल गँवावै, 
राम के नाम भलें सचु पावै ॥टेक॥
वाद विवाद न कीजे लोई, 
वाद विवाद न हरि रस होई ।
मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं, 
मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥१॥
हार जीत सौं हरि रस जाई, 
समझि देख मेरे मन भाई !
मूल न छाड़ी दादू बौरे, 
जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥२॥
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पद २७९ के पाद १ के - वाद विवाद न कीजे लोई ।
इस अंश पर दृष्टांत -
पंडित वादा पाठ में, दूजा बोला डाट ।
पाठ करत संचर पड़ा, रसना डारी काट ॥२॥
दो पंडित पाठ कर रहे थे । एक ने दूसरे को कहा - पाठ अशुद्ध करते हो । दूसरे ने कहा नहीं । फिर दोनों पंडितों में पाठ अशुद्ध व शुद्ध पर शास्त्रार्थ आरंभ हो गया । अन्त में दोनों में निर्णय हुआ कि - जो सब अशुद्ध बोलेगा वह अपनी जिह्वा को काट कर फैंक देगा ।
जब एक ने अशुद्ध बोला तब दूसरे ने डांट कर कहा - पाठ अशुद्ध बोला है । फिर अशुद्ध सिद्ध होने पर उसने अपनी रसना अपने हाथ से काट कर पृथ्वी पर डाल दी थी । सोई उक्त २७९ के पद के पाद १ में कहा है कि - वाद - विवाद नहीं करना चाहिये । करने से उक्त रसना कटाने वाले पंडित की सी दशा हो जाती है ।

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