मंगलवार, 1 जुलाई 2014

३४१. *संपट शिला में देत है*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३४१. विश्‍वास । उत्सव ताल
जनि सत छाड़ै बावरे, पूरक है पूरा ।
सिरजे की सब चिन्त है, देबे को सूरा ॥टेक॥
गर्भवास जिन राखिया, पावक तैं न्यारा ।
युक्ति यत्न कर सींचिया, दे प्राण अधारा ॥१॥
कुंज कहाँ धर संचरै, तहाँ को रखवारा ।
हिमहर तैं जिन राखिया, सो खसम हमारा ॥२॥
जल थल जीव जिते रहैं, सो सब को पूरै ।
संपट सिला में देत है, काहे नर झूरै ॥३॥
जिन यहु भार उठाइया, निर्वाहै सोई ।
दादू छिन न बिसारिये, तातैं जीवन होई ॥४॥
पद ३४१ के पाद तीन के - *संपट शिला में देत है* ।
इस अंश में दृष्टांत साखी भाग में पृथ्वीराज कुम्भावत पत्थरों की खानियों के ठेकेदार का आ गया है जिसने मोटी शिला की पट्टियां बनवाने को शिला को कटवाया तो उसके बीच में एक कीड़ा बैठा हुआ मिला और उसेक आगे थोड़ी शक्कर भी पड़ी थी । उसे देखकर पृथ्वीराज को वैराग्य हो गया था । फिर एक नाथ संत का शिष्य होकर पृथ्वीनाथ बन गया था । उनकी वाणी है ।

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