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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षोडशी तरंग” ९/१०)*
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*श्री दादूजी ने एक पतिव्रत बताया*
संतन को पति है परमेश्वर,
ताहिं विसारत हो व्यभिचारा ।
पावन शुद्ध कुमारि तपोमय,
श्रद्धहु चन्दन शीशहिं धारा ।
संयम स्नान सुशील दूकूलहिं,
है मणि माल सुनाम उचारा ।
भूषण है बिसवास हरि - रति,
एक अखंड पतिव्रत धारा ॥९॥
साधु संतों का पति तो एक मात्र परमेश्वर ही होता है । उसका स्मरण बिसार देने पर निश्चित ही व्यभिचार दोष लगता है । ये दोनों कन्यायें तन और मन से पावन हैं, इनका जीवन तपोमय है । इन्होंने श्रद्धारूपी चन्दन शीश पर धारण कर रखा है, संयम रूपी स्नान से शुद्ध होकर सुशीलता का दुकूल पहन रखा है । हरि नामरूपी मणिमाला कंठ में धारण कर ली है । श्री हरि के प्रति विश्वास और प्रेम ही इनका आभूषण है । इस तरह इन्होंने एक अखंड पतिव्रत का नियम धारण कर लिया है ॥९॥
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*संसारी प्राणी बासना में फस जाते*
काम वशी जग, राम भुलावत,
जोड़त है नित स्वारथ नाता ।
ले घट सों घट ही झकझोरत,
बासण सों भिडि बासण जाता ।
हो रज बीरज हिंसा कोटि हु,
जीवन मोह फँसाय व्यतीता ।
कामहिं क्रोध रू लोभहिं मत्सर,
दुर्गुण भीर बढे दिन राता ॥१०॥
ये संसारी प्राणी तो काम वासना के वशीभूत होकर राम को भूल बैठे हैं, स्वार्थ के नातों में नित्य उलझते रहते हैं । जैसे घट से टकराकर घट फूटते रहते हैं, वैसे ही नर - नारी के शरीर रूपी घट वासना वेग से एक दूसरे से टकराते हैं और जीर्ण - शीर्ण होते रहते हैं । उनकी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति क्षीण होती रहती है । इस वासना - तृप्ति की प्रक्रिया में रज और वीर्य के क्षरण से अनन्त कोटि जीवाणुओं की हिंसा होती है । इन्द्रिय - मोह में फँसकर जन्म व्यर्थ ही व्यतीत हो जाता है । काम, क्रोध, लोभ, मत्सर आदि दुर्गुणों की भीड़ दिन - रात बढ़ती ही चली जाती है । श्री दादूजी ने कन्याओं के पास भेजा उनसे पूछो राजन, गया राजा ने देखा सिंह रूप, राजा डर कर वापस भागा दादूजी के पास गया, तब दादूजी ने कहा उनके पास शुद्ध मनसे जावो, तब राजा ने अपना मन को शुद्ध करके गया, तब राजा को कन्या भक्ति में लीन बैठी दिखाई दी, तब राजा ने जाकर प्रणाम किया और कुछ प्रश्न किये, कन्यावों ने उत्तर दिया ॥१०॥
(क्रमशः)
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