शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

*करणी बिना ज्ञान का अंग १६३(९/१२)*

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*करणी किरका को नहिं, कथनी अनंत अपार ।*
*दादू यों क्यों पाइये, रे मन मूढ गँवार ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*करणी बिना ज्ञान का अंग १६३*
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रज्जब जोबन भादवा, इन्द्री आभे१ माँहिं ।
विषय वारि२ वर्षा विपुल३, ज्ञान भानु४ दुरि५ जाँहिं ॥९॥
जैसे भादवे के महिने में बादल१ भारी३ जल२ की वर्षा करते हैं तब सूर्य४ बादलों से छिप जाते हैं । वैसे ही युवावस्था में इन्द्रियों की चंचलता बढ जाती है और विषय भोग का अत्यधिक अवसर आता है तब भक्ति आदि साधनों से रहित परोक्ष ज्ञान छिप५ जाता है अर्थात हृदय में नहीं रहता ।
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रज्जब रैन१ अचेत२ मत३, वन मन जरि नहिं जाय ।
भानु ज्ञान उगत हि दहै४, उतर इन्द्रियाँ वाय५ ॥१०॥
ग्रीष्म ॠतु की रात्रि१ में वन के तृण, वृक्षादि नहीं जलते अर्थात सूखते तथा तपते नहीं किन्तु सूर्य उदय होने पर जब वायु५ भी उतर जाती है अर्थात बंद हो जाती है तब सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से वन जलता४ है । वैसे ही अज्ञानावस्था में मूर्ख२ प्राणी के विचारों३ से मन के विकार नहीं जलते किंतु अपरोक्ष ज्ञान होते ही इन्द्रियों की चंचलता कम होकर मन के विकार जल जाते है ।
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इन्द्रिय आभा१ ऊनवण२, ज्ञान उन्हालू३ होय ।
तो रामा४ रोली५ चढै, रज्जब साख६ न कोय ॥११॥
ग्रीष्म३ ॠतु की खेती जो, गेहूँ होने के समय आदि बादल१ चढे२ रहते हैं और वर्षते नहीं तब खेती खेती में रोली नामक रोग५ लग जाता है । उससे खेती६ नहीं हो पाती । वैसे ही ज्ञान के समय भी इन्द्रियों की चंचलता बढी रहे तो उसके हृदय पर नारी४ का राग चढ जायगा और मुक्ति नहीं मिल सकेगी ।
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आभे१ इन्द्री रैनी अचेत२, सूझै नांहि सबन के नेत३ ।
भानु ज्ञान आये न अंधार, आंखि मूंदि किया अंधियार ॥१२॥
अधेरी रात्रि में गहरे बादल१ छाये हों तब तो सबके नेत्र३ होने पर भी नहीं दीखता परन्तु सूर्य आने पर तो अंधेरा नहीं रहता, किंतु कोई अपनी आँखे बंद करके अंधेरा कर ले तो दूसरी बात है । वैसे ही अज्ञान२ के समय इन्द्रियों की चंचलता बढी रहती है तब तो किसी को भी ब्रह्म दर्शन नहीं होता किंतु ज्ञान होने पर तो अज्ञान चला जाता है, फिर तो अपने प्रमाद वश निदिध्यासन नहीं करे तो दूसरी बात है ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित करणी बिना ज्ञान का अंग १६३ समाप्तः ॥सा. ५०७९॥
(क्रमशः)

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