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*औषध खाइ न पथ्य रहै, विषम व्याधि क्यों जाइ ।*
*दादू रोगी बावरा, दोष बैद को लाइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*ज्ञान बिना करणी का अंग १६४*
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करणी१ आँधी जोर वर२, ज्ञान पांगुलै नैन ।
जन रज्जब दोन्यों जुरहि३, जुदे न पावै चैन ॥५॥
कर्त्तव्य१ में बल तो श्रेष्ठ२ है किंतु अंधा है । ज्ञान पंगु है किंतु उसके नेत्र हैं, ये दोनों जिस साधक में आ मिलते३ हैं तब तो वह ब्रह्मानन्द को प्राप्त होता है और अलग अलग रहते हैं अर्थात कर्त्तव्य है और ज्ञान नहीं है तथा परोक्ष ज्ञान है और धारणा रूप कर्त्तव्य नहीं है तब ऐसे साधक को ब्रह्मानन्द नहीं प्राप्त होता ।
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करणी१ कण चावल सही२, ज्ञान छौंत३ के माँहि ।
रज्जब ऊगै एकठै४, जुदे जुदे सो नांहि ॥६॥
जैसे चावल निश्चय२ ही उसके छिलके३ के भीतर ही रहता है और वे दोनों इकट्ठे-ही४ उगते हैं अलग अलग नहीं उगते । वैसे ही ज्ञान साधन रूप कर्त्तव्य१ करने से ही उत्पन्न होता है और समतादि उसके साथ ही उत्पन्न होते हैं अलग अलग नहीं होते ।
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राम बिना रीति१ रहति२, रहति बिना त्यों राम ।
पछ३ औषधी संयोग सुख, वियोग वे४ हु बेकाम५ ॥७॥
राम के स्वरूप ज्ञान के बिना ब्रह्मचर्य२ पालन रूप कर्त्तव्य महत्व शून्य१ है और वैसे ही ब्रह्मचर्य बिना विषयी का राम स्वरूप संबंधी ज्ञान भी महत्व शून्य है । जैसे पथ्य३ पालन और औषधि सेवन रूप संयोग सुखद होता है और उनका वियोग अर्थात पथ्य पालन बिना वे४ औषधियां खाने पर भी आरोग्यता देने में व्यर्थ५ हो जाती है, निरोग नहीं बना सकती । वैसे ही ज्ञान बिना कर्तव्य कर्म मुक्ति देने में व्यर्थ हो जाते हैं, मुक्ति नहीं दे सकते ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित ज्ञान बिना करणी का अंग १६४ समाप्तः ॥सा. ५०८६॥
(क्रमशः)
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