रविवार, 26 सितंबर 2021

*कर्मत्याग कब*

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*जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधि, बुधि नाठे ज्ञान ।*
*लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(८)कर्मत्याग कब ?*
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शाम हो गयी । दक्षिण के बरामदे में और पश्चिमवाले गोल बरामदे में दीपक जलाये जा चुके हैं । श्रीरामकृष्ण के कमरे का प्रदीप जला दिया गया, कमरे में धूप दी गयी ।
श्रीरामकृष्ण अपने आसन पर बैठे हुए माता का नाम ले रहे हैं । कमरे में मास्टर, श्रीयुत प्रिय मुखर्जी और उनके आत्मीय हरि बैठे हैं । कुछ देर तक ध्यान और चिन्तन कर लेने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से वार्तालाप करने लगे । अब श्रीठाकुरमन्दिर में आरती ही की देर है ।.
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - जो दिन-रात उनकी चिन्ता कर रहा है उसके लिए सन्ध्या की क्या जरूरत है ?
“सन्ध्या गायत्री में लीन हो जाती है और गायत्री ओंकार में ।
"एक बार ॐ कहने के साथ ही जब समाधि हो जाय तब समझना चाहिए कि अब साधु साधन-भजन में पक्का हो गया ।
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"हृषीकेश में एक साधु सुबह उठकर, जहाँ एक बहुत बड़ा झरना है, वहाँ जाकर खड़ा होता है । दिन भर वही झरना देखता है और ईश्वर से कहता है, 'वाह, खूब बनाया है तुमने ! कितने आश्चर्य की बात है !' उसके लिए जप-तप कुछ नहीं है । रात होने पर वह अपनी कुटी पर लौट जाता है ।
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“निराकार या साकार इन सब बातों के सोचने की ऐसी क्या आवश्यकता है ! निर्जन में व्याकुल हो रो-रोकर उनसे कहने से ही काम बन जायगा । कहो – 'हे ईश्वर, तुम कैसे हो, यह मुझे समझा दो, मुझे दर्शन दो ।'
"वे अन्दर भी हैं और बाहर भी ।
“अन्दर भी वे ही हैं । इसीलिए वेद कहते हैं – तत्त्वमसी । और बाहर भी वे ही हैं । माया से अनेक रूप दिखायी पड़ते हैं । परन्तु वस्तुतः हैं वे ही ।
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"इसीलिए सब नामों और रूपों का वर्णन करने के पहले कहा जाता है – ॐ तत् सत् ।
"दर्शन करने पर एक तरह का ज्ञान होता है और शास्त्रों से एक दूसरी तरह का । शास्त्रों में उसका आभास मात्र मिलता है, इसलिए कई शास्त्रों के पढ़ने की कोई जरूरत नहीं । इससे निर्जन में उन्हें पुकारना अच्छा है ।
"गीता सब न पढ़ने से भी काम चलता है । दस बार गीता गीता कहने से जो कुछ होता है, वही गीता का सार है । अर्थात् त्यागी । हे जीव, सब त्याग करके ईश्वर की आराधना करो । यही गीता का सार है ।”
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श्रीरामकृष्ण को भक्तों के साथ काली की आरती देखते देखते भावावेश हो रहा है । अब देवी-प्रतिमा के सामने भूमिष्ठ होकर प्रणाम नहीं कर सकते । भावावेश अब भी है । भावावस्था में वार्तालाप कर रहे हैं ।
मुखर्जी के आत्मीय हरि की उम्र अठारह-बीस साल की होगी । उनका विवाह हो गया है । इस समय मुखर्जी के ही घर पर रहते हैं । कोई काम करनेवाले हैं । श्रीरामकृष्ण पर बड़ी भक्ति है ।
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श्रीरामकृष्ण - (भावावेश में हरि से) - तुम अपनी माँ से पूछकर मन्त्र लेना । (श्रीयुत प्रिय से) मैं इनसे (हरि से) कह भी न सका, मन्त्र तो मैं देता ही नहीं हूँ ।
"तुम जैसा ध्यान-जप करते हो; वैसा ही करते रहो ।"
प्रिय - जो आज्ञा ।
श्रीरामकृष्ण - और मैं इस अवस्था में कह रहा हूँ; बात पर विश्वास करना । देखो, यहाँ ढोंग इत्यादि नहीं है ।
"मैंने भावावेश में कहा - माँ, जो लोग यहाँ अन्तर की प्रेरणा से आते हैं, वे सिद्ध हों ।"
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सींती के महेन्द्र वैद्य बरामदे में आकर बैठे । वे श्रीयुत रामलाल, हाजरा आदि के साथ बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अपने आसन से उन्हें पुकार रहे हैं - 'महेन्द्र, महेन्द्र !’
मास्टर जल्दी से वैद्यराज को बुला लाये ।
श्रीरामकृष्ण - (कविराज से) – बैठो - जरा सुनो तो सही ।
वैद्यराज कुछ लज्जित से हो गये । बैठकर श्रीरामकृष्ण के उपदेश सुनने लगे ।
(क्रमशः)

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