सोमवार, 27 सितंबर 2021

शब्दस्कन्ध ~ पद #.११७

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.११७)*
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*अथ राग केदार ६*
*(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे) *
*११७. विनती (गुजराती भाषा) । दीप चन्दी ताल*
*मारा नाथ जी, तारो नाम लेवाड़ रे ।*
*राम रतन हृदया मा राखे, मारा वाहला जी, विषया थी वारे ॥टेक॥*
*वाहला वाणी ने मन मांहे मारे, चितवन तारो चित राखे ।*
*श्रवण नेत्र आ इन्द्री ना गुण, मारा मांहेला मल ते नाखे ॥१॥*
*वाहला जीवाड़े तो राम रमाड़े, मनें जीव्यानो फल ये आपे ।*
*तारा नाम बिना हौं ज्यां ज्यां बंध्यो, जन दादू ना बंधन कापे ॥२॥*
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भा० दी०-हे स्वामिन् ! ईदृशीं कृपां विस्तारय, ययाऽहं स्वहृदय एव भवन्नामस्मरणं कुर्याम् । यतश्च तव नाम मम रत्नवत्प्रियमस्ति । विषयेभ्यो मां दूरीकुरु त्वम् । हे प्रिय परमात्मन् ! मम वाचा तवैव कीर्तनं मनसा तवैव स्मरणं चित्तेन तव चरणारविन्दचिन्तनं भवेत् । ममेन्द्रियाणां या विषयासक्ति: सा त्वयाऽपसार्यताम् । तव कृपया मम मन आसुरभावं परित्यज्यतु । यदि त्वं मां जीवन्तं दिदृक्षसे तर्हि हे राम! मम मनस्तव स्वरूपे निवेशय । अन्यथा मम जीवनं व्यर्थमेव स्यात् । हे राम! यत्र कुत्राऽपि में विषयानुबन्धनं तत्सर्वं विमोचय !
उक्तंहि शङ्कराचार्येण विष्णुषट्पद्याम्-
अविनयमपनय दमय मन: शमय विषयमृगतृष्णाम् ।
भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ।
गीतायाम्-
तेषामेवानुकम्पार्थ महमज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
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हे नाथ ! ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मेरे हृदय में सतत आपका नाम चिन्तन होता रहे, क्योंकि मेरे को आप का नाम रत्न की तरह प्रिय है । विषयों से आप मेरे को बचाइये । हे परमात्मन् ! मेरी वाणी आपके गुणानुवाद गावे, मन आपके स्वरूप का मनन करे, चित्त आपके चरण-कमलों का चिन्तन करे, ऐसी कृपा करें ।
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आप अपनी कृपा से मेरी इन्द्रियों की विषयासक्ति को दूर करें । आपकी कृपा से मैं आसुरी भाव को छोड़ दूं । यदि आप मेरे को जीता हुआ देखना चाहते हैं तो आपके स्वरूप में मेरा मन रमण करे, ऐसी कृपा कीजिये अन्यथा मेरा जीवन व्यर्थ की चला जायगा । हे राम ! जिस जिस विषय से मेरा जहां जहां बन्धन है, उसको आप अपनी कृपा से काट डालें ।
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विष्णुषट्पदी में –
हे करुणामय नारायण ! हमारे अपराधों को क्षमा करो । इन्द्रियाँ और मन का दमन करो । संसार की मृग-तृष्णा का शमन करो । प्राणी मात्र में दया का विस्तार करो । इस संसार-सागर से हमें पार करो ।
गीता में – हे अर्जुन ! भक्तों के अन्तःकरण में एकीभाव से स्थित हुआ मैं, उन भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये, उत्पन्न हुए अज्ञान रूपी अन्धकार को तत्तद् ज्ञानरुपी प्रकाशमय दीपक द्वारा नष्ट कर देता हूं ।
(क्रमशः)

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