सोमवार, 27 सितंबर 2021

*१८. साध को अंग ~ २१३/२१६*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २१३/२१६*
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कहि जगजीवन आरती, रांम नांम जिहिं ठांम ।
रवि ससि अनंत उजास१ जहँ, नवणि निरंजन रांम ॥२१३॥
(१. उजास=प्रकाश)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ राम नाम है वहां ही प्रभु की आरती है । जहां चन्द्र सूर्य का प्रकाश है वहां ही राम जी का निवास है ।
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बड़ा विवेकी बसत का, पारख प्रांणी कूंण ।
जगजीवन ते गलि रहै, जैसैं पांणी लूंण ॥२१४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि श्रेष्ठ की परख करनेवाले कौन है वे ऐसे प्रभु में लीन है जैसे पानी में नमक लीन है एकाकार है ।
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मोह मार मैदान करि, तहां विवेक पधराइ ।
जगजीवन सैन्यां२ सकल, रांम रमत तिर जाइ ॥२१५॥
(२. सैन्यां=समस्त सेना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ मोह को त्याग करते हैं वहाँ ही विवेक आता है मोह के रहते विवेक नहीं आता है । संत कहते हैं कि राम राम कहते सारे भक्त अनुयायी पार हो जाते हैं ।
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जगजीवन गुण लीजिये, गहिये ग्यांन विवेक ।
पुरिष पुरातन परसिये, सोई गहिये टेक३ ॥२१६॥
(३=टेक=दृढ संकल्प)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति का गुण ग्रहण करने से ज्ञान व विवेक मिलता है । और आदि पुरुष परमात्मा का सान्निध्य मिलता है अतः हमें सदा प्रभु के प्रति दृढ संकल्प का भाव रखना चाहिये ।
(क्रमशः)

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