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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*११६. ज्ञान । रूपक ताल*
*भाई रे, तब क्या कथसि गियाना,*
*जब दूसर नाहीं आना ॥टेक॥*
*जब तत्त्वहिं तत्त्व समाना,*
*जहँ का तहँ ले साना ॥१॥*
*जहाँ का तहाँ मिलावा,*
*ज्यों था त्यों होइ आवा ॥२॥*
*संधे संधि मिलाई, जहाँ तहाँ थिति पाई ॥३॥*
*सब अंग सबही ठांहीं, दादू दूसर नांहीं ॥४॥*
*इति राग अडाणा समाप्त ॥५॥पद ६॥*
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भा० दी०-हे भ्रात: ! ब्रह्मज्ञाने सत्यज्ञाननाशाद् द्वैतभावानुत्पत्तेरद्वैतावस्थायां कः कमुपदिशेत् । यदा सांसारिकभावनामुत्सृज्य ब्रह्मणोंऽशो जीवो ब्रह्मणा सहैक्यमश्नुते तदा जले जलमिव तत्त्वे तत्त्वमिव परस्परतया समावेशात्क: कमुपदिशेत् । तदाऽशांशिभावस्यापि विलीनत्वेन पूर्ववत् ब्रह्माभावापन्नत्वे भेदरूपा सन्धिरपि न प्रतीयतेऽद्वैते संगमात् । तस्मादद्वैतावस्थायां किमपि कथनं न संभवति, कुतो द्वैतस्थितिः । अतोऽज्ञानदशायामेव सर्वोऽप्युपदेशादिव्यवहारः ।
उक्तं हि विवेक चूडामणौ-
आकाशवन्निर्मलनिर्विकल्प नि:सीम निष्पंदननिर्विकारम् ।
अन्तर्बहिः शून्यमनन्यमद्वयं स्वयं किमस्ति बोध्यम् ॥
वक्तव्यं किमु विद्यतेऽत्र बहुधा ब्रह्मैव जीव स्वयम्
ब्रह्मेतज्जगदाततं नु सकलं ब्रह्माऽद्वितीयं श्रुतेः ।
ब्रह्मैवाहमिति प्रबुद्धमतय: संत्यक्तबाह्याः स्फुटं
ब्रह्मीभूय वसन्ति संततचिदानन्दात्मनैव ध्रुवम् ॥
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हे भाई ! ब्रह्म-ज्ञान होने पर अज्ञान के नाश हो जाने से द्वैतबुद्धि पैदा ही नहीं होती तो फिर उस अद्वैत अवस्था में कौन किस को उपदेश दे सकता है । जब कि सांसारिक भावना को त्याग कर ब्रह्म का अंश जीव ब्रह्म के साथ ऐक्य भाव का अनुभव करता है, तब जल में जल की तरह से, तत्त्व में तत्त्व की तरह, परस्पर में एक दूसरे का समावेश होने से कौन किस को उपदेश दे ?
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उस समय तो अंशाशी भाव भी विलिन हो जाता है और पहले की तरह ब्रह्म भावापन्न होने से भेद रूप सन्धि भी प्रतीत नहीं होती क्योंकि अद्वैत में मिल जाती है । अतः अद्वैत अवस्था में कुछ भी कथन नहीं बन सकता तो फिर द्वैत की स्थिति तो हो ही नहीं सकती । अतः अज्ञान दशा में ही उपदेश देने आदि का व्यवहार होता है ।
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विवेकचूड़ामणि –
जो परब्रह्म स्वयं आकाश के समान निर्मल, निर्विकल्प, निःसीम, निश्चल, निर्विकार, बाहर-भीतर सब ओर शून्य, अनन्य, अद्वितीय है, वह क्या ज्ञान का विषय हो सकता हैं ? इस विषय में और अधिक क्या कहना है ?
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जीव तो स्वयं ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह संपूर्ण जगत् रूप से फैला हुआ है, क्योंकि श्रुति भी कहती है कि ब्रह्म अद्वितीय है और यह निश्चय है कि जिनको यह बोध हुआ है कि ‘मैं ब्रह्म ही हूं’, वे बाह्य विषयों को सर्वथा त्याग कर ब्रह्म-भाव से सदा सच्चिदानन्द रूप से ही स्थित रहते हैं ।
(क्रमशः)
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