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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २०९/२१२*
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लौह गुण इंद्री जगत सब, दार८ नांउ दिढ नांव ।
कहि जगजीवन दरिया९ लंघै, सत संगति में भाव ॥२०९॥
{८. दार=दारु(काष्ठ)} (९. दरिया=भवसागर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारा संसार लौह जाति का( है जो जंग से क्षय होता है । किंतु प्रभु का नाम काठ है जो जंगरोधी है तो भव सागर से वह ही पार कर सकता है ।
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कहि जगजीवन देहुरे१०, आप विराजै रांम ।
सेवा पूजा आरती, साध करैं सब ठांम ॥२१०॥
(१०. देहुरे=देवमन्दिर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देवमन्दिर में स्वयं प्रभु विराजते हैं और सभी साधुजन उनकी सेवा पूजा आरती करते हैं । हमारा मन भी मंदिर है हमें इसमें विराजे प्रभु का भी वैसे ही ध्यान रखना चाहिये ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हरिजन आरतिवंत ।
भाव भगति सौं आरती११, सकल उतारैं संत ॥२११॥
(आरती=विरहमयी भगवत्साधना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम जी आपके भक्त आर्त या व्याकुल हैं वे सब भी भक्ति अनुसार भगवत्साधना करते हैं ।
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कहि जगजीवन आरती, देह निरंतर होइ ।
सकल साध सिध देव मुनि, ताहि नवैं सब कोइ ॥२१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह से विरह सहित भक्ति निरंतर होती रहे सब साधु सिद्ध देव व मुनि जन सब ही उन परमात्मा को नमन करते हैं ।
(क्रमशः)
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