सोमवार, 27 सितंबर 2021

*नाम विवेक का अंग १६५(१/४)*

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*संगहि लागा सब फिरै, राम नाम के साथ ।*
*चिंतामणि हिरदै बसै, तो सकल पदार्थ हाथ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नाम विवेक का अंग १६५*
इस अंग में नाम और विवेक संबंधी विचार कर रहे हैं ~
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नाम हिं भजे विचार सौं, सो भूलै नहि संत ।
रज्जब नाम निरूप रटि१, पहुँचे प्राणि अनन्त ॥१॥
जो संत विचार पूर्वक नाम चिन्तन करता है, वह मायिक चमत्कारों से प्रभु को नहीं भूलता । रूप रहित नाम का चिंतन१ करके अनन्त प्राणी सांसारिक भावनाओं से पार होकर प्रभु के पास पहुंचे हैं ।
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राम नाम निज नाव गति, केवट ज्ञान विचार ।
जन रज्जब दोन्यों मिलै, तबै पहुंचे पार ॥२॥
राम का निज नाम नौका के समान है और ज्ञान विचार उसे चलाने वाले केवट के समान है । जैसे नौका और केवट दोनों मिलते हैं तब ही महानद के पार पहुंचा जाता है । वैसे ही नाम और ज्ञान दोनों मिलते हैं तब ही संसार के पार प्रभु के पास पहुँचा जाता है ।
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औषधी हरि का नाम ले, पछ१ पंचों वश राखि ।
रज्जब जीव निरोग ह्वै, सदगुरु साधू साखि ॥३॥
जैसे पथ्य१ रखते हुये औषधि सेवन करता है वह रोग रहित हो जाता है । वैसे ही हरि नाम चिंतन करते हुये पांचों ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखता है वह जीव संसार से मुक्त हो जाता है । यह सदगुरु और संतों की साक्षी है ।
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औषधि अविगत१ नाम ले, पछ२ पंचों वश जोग३ ।
रज्जब रहतों इहि जुगति, आतम होय निरोग ॥४॥
जो जीवात्मा परब्रह्म१ के नाम चिंतन रूप औषधि सेवन के साथ, पंच ज्ञानेन्द्रियों को वश में रखना रूप यथा योग्य३ पथ्य२ सेवन करते हुये रहता है, तब वह इस युक्ति द्वारा जन्मादि संसार रोग से रहित हो जाता है ।
(क्रमशः)

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