शनिवार, 25 सितंबर 2021

*कृष्णदास कलि-काल में*

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*परमारथ को सब किया, आप स्वार्थ नांहि ।*
*परमेश्‍वर परमार्थी, कै साधु कलि मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*कृष्णदास कलि-काल में,*
*दधीचि ज्यूं दूजैं करी ॥*
*सिंह शरण यूं जान,*
*काट तन मांस खुवायो ।*
*भई पहुँन गति भली,*
*जगत यश भयो सवायो ॥*
*महा अपर१ वैराग्य,*
*वाम२ कंचन तैं न्यारे ।*
*हरि अंध्री३ सुठ४ गंध,*
*लेत अह निशि मतवारे ॥*
*गालव ऋषि आश्रम विदित,*
*रीति सनातन उर धरी ।*
*कृष्णदास कलि-काल में,*
*दधीचि ज्यूं दूजैं करी ॥१७७॥*
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कृष्णदास जी पयहारी ने कलि-काल में भी महर्षि दधीचि के समान दधीचि वंश में दूसरी बार परहित की क्रिया करी थी ।
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सो बता रहे हैं - एक समय आपके पास एक भूखा सिंह आ गया था । उसको शरण में आया हुआ तथा भूखा जानकर आपने अपनी जंघा का मांस काटकर उसे खिलाया था ।
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इस क्रिया से सिंह रूप अतिथि के सत्कार की रीति भली प्रकार संपन्न हुई और कृष्णदास जी पयहारी का यश जगत में पहले से सवाया हुआ ।
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आपका वैराग्य इतना महान था कि उस समय दूसरे१ में तो ऐसा देखा भी नहीं जाता था । आप नारी२ और स्वर्णादि धन से तो सर्वथा अलग ही रहते थे । रात्रि दिन भगवान् के चरण३-कमलों की भक्ति रूप सुन्दर४ सुगन्ध को लेते हुए अर्थात् भक्ति करते हुए मस्त रहते थे ।
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गालव ऋषि के प्रसिद्ध आश्रम गलता में निवास करके आपने भागवत् धर्म को सनातन रीति को हृदय में धारण करके ही भगवद् भक्ति करी थी ।
(क्रमशः)

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