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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*सीकरी प्रसंग द्वादश दिन*
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१२ वें दिन अकबर बादशाह ने पू़छा - वह तेजोमय तखत कहां से आया था ? दादूजी ने कहा - वह तो प्रभु का हम भजन करते हैं उन प्रभु ने हमारी लज्जा रखने के लिये भेजा था और उन्होंने उसे उसी क्षण छिपा दिया । अकबर ने पू़छा - वह प्रभु कहां हैं ? दादूजी ने कहा -
*दादू राजिक रिजिक लीये खड़ा, देवे हाथों हाथ ।*
*पूरक पूरा पास है, सदा हमारे साथ ॥२०॥*
(विश्वास अंग १९)
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अकबर बादशाह ने कहा - साहिब अपने भक्तों की पालना करते हैं किन्तु आप तो न तसवीह फेरते, कुरान भी नहीं पढ़ते, सिजदा भी नहीं करते फिर आपकी पालना कैसे करता होगा ? दादूजी ने कहा -
काया महल में नमाज गुजारुं, तहँ और न आवण पावे ।
मन मणके कर तसवीह फेरु, साहिब के मन भावे ॥४२॥
दादू दिल दरिया में गुस्ल हमारा, ऊजूकर चित्त लाऊं ।
साहिब आगे करुं बंदगी, बेर - बेर बलि जाऊं ॥४३॥
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पचों संग संभालू सांई, तन मन तो सुख पाऊं ।
प्रेम पियाला पिवजी देवें, कलमा यह ले लाऊ ॥४४॥
(साँच अंग १३)
काया मसीत कर पंच जमाती, मन ही मुल्ला इमाम ।
आप अलेख इलाही आगे, तहां सिजदा करे सलाम ॥२२७॥
(परिचय अंग ४)
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उक्त रहस्य मय उपदेश सुनकर अकबर ने कहा - इस रहस्य को मुसलमान भी नहीं जानते । वे तो एक पक्ष में बंधे रहते हैं, अतः उनके विचार भी सीमित ही रहते हैं । आपने तो पक्षपात रहित यथार्थ तत्व का कथन किया है । अब आप मुझे निर्गुण ब्रह्म का परिचय भी दें ।
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तब बादाह को ९५ का पद -
९५. वस्तु निर्देश । चौताल
निर्मल तत्त निर्मल तत्त निर्मल तत्त ऐसा ।
निर्गुण निज निधि निरंजन, जैसा है तैसा ॥टेक॥
उतपत्ति आकार नांही, जीव नांही काया ।
काल नांही कर्म नांही, रहिता राम राया ॥१॥
शीत नांही घाम नांही, धूप नांही छाया ।
बाव नांही वर्ण नांही, मोह नांही माया ॥२॥
धरणी आकाश अगम, चंद सूर नांही ।
रजनी निशि दिवस नांही, पवना नहीं जांही ॥३॥
कृत्रिम घट कला नांही, सकल रहित सोई ।
दादू निज अगम निगम, दूजा नहीं कोई ॥४॥
उक्त पद से निर्गुण ब्रह्मका स्वरूप समझाया । फिर अकबर ने धन्य - धन्य कहकर दादूजी की भूरि - भूरि प्रसंशा की । पश्चात् सत्संग समाप्त हो गया ।
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