शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021

*१८. साध को अंग ~ २१७/२१९*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २१७/२१९*
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सुमिरण सेवा बंदगी, सकल वीनांन४ विवेक ।
जगजीवन जाकै ह्रिदै, सौ हरि परसै एक ॥२१७॥
{४. वीनांन=विज्ञान(किसी विषय का क्रमबद्ध, व्यवस्थित अनुभवजन्य ज्ञान)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सेवा स्मरण व प्रभु की पूजा बंदगी करते हैं व सारे विज्ञान को जानते हैं वे ही प्रभु सानिध्य पाते हैं ।
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बिलसै सुंदरि परम रस, बिलसै कंवल बिलास ।
जगजीवन सेवग सुखी, मन राखै इहि आस ॥२१८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा के सानिध्य से आत्मा रुपी सुन्दरी कमल के समान खिली रहती है । संत कहते हैं कि इस भाव से सेवक सुखी रहते हैं व मन में परमात्मा को पाने की आशा बनी रहती है ।
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सेवा भावै साध की, सेवा सकल सुहाइ ।
कहि जगजीवनदास हरि, सेवा करी न जाइ ॥२१९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु को साधुजन की सेवा ही अच्छी लगती है संत कहते हैं कि सामान्य जन परमात्मा की सेवा नहीं कर पाते हैं ।
(क्रमशः)

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