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*साधु जन संसार में, भव - जल बोहित अंग ।*
*दादू केते उद्धरे, जेते बैठे संग ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*भूपति पुत्र भगत्त भयो भल,*
*संत शलाध्य नहीं जन ऐसा ।*
*साधु तिया गर्भ दे युग पातल,*
*बालक है गुरु आप कहै सो ॥*
*भेष धरयाँ इक जूतन बेचत,*
*भूप कहा कर जोरि हरै सो ।*
*त्याग करो जग होय बुरो धन,*
*दे रु रिझावत पाँय परै सो ॥१७३॥*
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कुल्लू के राजा का उक्त पुत्र बहुत अच्छा भक्त हुआ । संतों की श्लाधनीय सेवा करता था । संत-सेवा करने वालों में उसके समान उस समय और कोई भी भक्त नहीं था ।
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एक दिन भंडारे में एक गृहस्थ संत की वधू को गर्भवती देखकर उसे दो पत्तल देते हुये आपने कहा - गर्भ का बालक महान् भक्त है । फिर वह गर्भ का बालक हरि भक्त ही हुआ था ।
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एक मनुष्य संतों का भेष बनाकर जूतियाँ बेचा करता था और अति दरिद्र ही रहता था । भक्त राजा को उस पर दया आ गई । राजा ने हाथ जोड़ कर उसे कहा – आप तो कृपा करके मनुष्यों की कंटकादि से रक्षा हेतु यह व्यापार करते हैं किन्तु सर्व साधारण प्राणी इस रहस्य को कैसे जान सकते हैं ? इससे आपका यह काम जगत के लोगों को अनुचित लगता है, आप इसे त्याग दें । ऐसा कहकर राजा ने उसका वह काम छुड़ा दिया था । फिर उसके चरणों में पड़कर उसे प्रसन्न किया और योग क्षेम के लिये धन भी दिया था । फिर वह भेषधारी भगवान् की भक्ति करते हुये संतों की सेवा भी अति प्रेम से करने लगा था ।
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पयहारी कृष्णदास जी महाराज के प्रभाव से तथा उपदेश से ही राजा ने ऐसा किया था । अतः यह पयहारी कृष्णदासजी का ही यश है । फिर पयहारी कृष्णदासजी यात्रा करते हुए आँमेर के पास के गालव आश्रम(गलता) में आये ।
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एक रात्रि वहाँ ठहरना चाहते थे किन्तु वहां के निवासी नाथों ने उनको वहां नहीं ठहरने दिया और कहा - यहां से अभी उठकर चले जाओ । आपने अपनी धूनि की अग्नि कपड़े में बाँध ली और वहां से हटकर कुछ दूर दूसरे स्थान पर जा बैठे तथा अग्नि कपड़े से निकाल कर पृथ्वी पर रख दी । कपड़े का न जलना देखकर नाथ योगियों का महन्त बाघ बन कर झपटा ।
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आपने कहा - तू कैसा गधा है । तुरन्त वह गधा हो गया और अपनी शक्ति से पुनः मनुष्य न बन सका । सब नाथ योगियों के कानों के मुद्रे कानों से निकलकर आपके पास आकर उनका ढेर लग गया । फिर आँमेर नरेश पृथ्वीराज ने आपके पास आकर महन्त को पुनः मनुष्य बनाने और मुद्रायें योगियों के कानों में जाने की प्रार्थना की । तब महन्त पुनः मनुष्य बने, मुद्रायें योगियों के कानों में पूर्ववत आ गई ।
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फिर नाथ योगियों को आपने आज्ञा दी कि - इस स्थान को छोड़कर तुम लोग अलग रहो और मेरी धूनी के लिये प्रति दिन लकड़ियाँ पहुंचाया करो । नाथों ने उक्त आज्ञा स्वीकार की । आँमेर नरेश पृथ्वीराज आपका शिष्य हो गया । तभी से गलता आपकी प्रसिद्ध गादी हुई ।
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वन में गायें अपने आप पयहारी कृष्णदासजी को दूध देती थीं । आँमेर की एक वेश्या को भी उपदेश देकर आपने परमगति प्रदान की थी । एक समय कांची के स्वामी को निमंत्रण देने के लिये दो साधुयों को भेजा था । उनके लौटते समय कांची के स्वामी ने उनको पांच सौ रुपये दिये थे ।
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जब लौटकर आँमेर आये तो बाजार में एक सुन्दर वेश्या को देखकर इस शर्त पर वे रुपये वेश्या को दे दिये कि चार घड़ी रात्रि गये हमें सुख प्रदान करना । रात्रि में वेश्या का घर उनको नहीं मिला । देर होने पर वेश्या ने भी खोज की फिर प्रातः मिले । अब इनकी काम वासना नष्ट हो गई थी ।
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इनके सत्संग से वेश्या को वैराग्य हुआ । उसने पयहारी जी के दर्शन की अभिलाषा की । वेश्या को साथ ले जाकर साधुओं ने कपट छोड़कर अपनी कथा ज्यों की त्यों सुना दी । पयहारी जी ने वेश्या को शरण दी । वेश्या ने अपना लाखों का माल संत सेवा में खर्च कर दिया और भक्ति में लग गई । विषय वासना छोड़कर भगवान् के आगे नृत्य करती थी ।
(क्रमशः)
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