शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

*१८. साध को अंग ~ २२०/२२२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१८. साध को अंग ~ २२०/२२२*
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सेवा सुर नर मोहिये, सेवा रीझैं रांम ।
कहि जगजीवन पहुँचिये, सेवा सौं सब ठांम ॥२२०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सेवा से देव मनुष्य सब मोहित रहते हैं सेवा से ही प्रभु प्रसन्न होते हैं संत कहते हैं कि सेवा से हम सब कुछ पा सकते हैं ।
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दिन द्रिग दिनकर५ निस द्रिग ससिहर६, गृह द्रिग दीपक७ देह ।
कहि जगजीवन हरि भगत, जन द्रिग रांम८ बिदेह ॥२२१॥
(५. दिनकर=दिन में दृष्टि का साधन=सूर्य) (६. ससिहर=रात्रि में दृष्टि का साधन चन्द्रमा) (७. दीपक=घर में वस्तु देखने का साधन) (८. रांम=साधक को मूलतत्त्व तक पहुँचाने वाला साधन=राम नाम)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दिन में देखने का साधन सूर्य है । रात में देखने का साधन चंद्र है घर में देखने का साधन दीपक है । और साधक को मूल तत्व तक ले जानेवाला साधन राम है ।
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हरि तरवर का भगति फल, वांणी फूल सुबास ।
साध भँवर परिमल लहै, सु कहि जगजीवनदास ॥२२२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा रुपी वृक्ष का फल भक्ति है और उसकी सुगंध वाणी है । साधु भ्रमर वहां से पराग ग्रहण करते हैं ।
इति साध कौ अंग सम्पूर्ण ॥१८॥
(क्रमशः)

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