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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२५)*
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*१२५. विरह (गुजराती) । राज विद्याधर ताल*
*म्हारा रे वाहला ने काजे,*
*हृदये जोवा ने हौं ध्यान धरूं ।*
*आकुल थाये प्राण मारा,*
*कोने कही पर करूँ ॥टेक॥*
*संभार्यो आवे रे वाहला,*
*वेहला एहों जोई ठरूं ।*
*साथीजी साथे थइ ने,*
*पेली तीरे पार तरूं ॥१॥*
*पीव पाखे दिन दुहेला जाये,*
*घड़ी बरसां सौं केम भरूं ।*
*दादू रे जन हरि गुण गाता,*
*पूरण स्वामी ते वरूं ॥२॥*
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भा० दी०-यो भगवान् भक्तदुःखनिवारको भक्तवत्सलः स्मृतमात्रेणागत्य भक्तान् सुखयति । स हृदये निरन्तरध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसाऽपि नावगम्यते । अहो महहुःखम् । अत्रेदमाकूतम्-ध्यानं हि नाम मानसी क्रिया मनस्तु भगवद्विरहदुःखसमुद्रे मग्नमतो भगवद्ध्यानमेव न जायते । नहि तद् ध्यानं विना दुःखनिवृत्ति: संभवति । न च दुःखहानि विना तद्ध्यानं जायते । अतो महादुःखम् । कथं भगवद्ध्यानं स्यात् । कथञ्च दुःखनिवृत्तिरिति । अतो हे प्रभो ! दयस्व येन तव ध्यानं भवेत् । त्वदर्शनं विना तु मे प्राणा व्याकुलीभवन्ति । अहं कस्य पुरो विरहव्यथां श्रावयित्वा दुःखमपसारयामि । हा स्मृतमात्रेण भक्तदुःखभञ्जक प्रभो । तव दर्शनेनैव मे हृदये शान्ति: समुदियात् नान्यथा । अतस्तव साहाय्येन दुःखाब्धि तरीतुं शक्नोमि । हा हन्त हन्त । प्रियतमस्य प्रभो दर्शनं विना त्विमानि दिनानि सकष्टानि मे व्यतिगमिष्यन्ति । तं विना तु क्षणमप्येकं वर्षशतायते । अत आयुषो दिनानि कथं व्यतितानि भवेयुः । भवतु नाम कष्टम्, तदपि विभुं न विस्मरामि किन्तु तत्कीर्तनेन तमेव परिपूर्णं मे स्वामिनं करिष्यामि ।
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जो भगवान् भक्तों के दुःख को मिटाने वाले तथा भक्तों पर कृपा करने वाले स्मरण मात्र से आकर भक्तों के कष्ट को मिटा देते हैं, वे ही भगवान् हृदय में निरन्तर ध्यान का अभ्यास करके मन को वश में कर ध्यान करने पर भी दर्शन नहीं देते, यह एक महादुख का विषय है ।
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इस कथन का अभिप्राय यह है कि – ध्यान मन की क्रिया को कहते हैं और मन विरह-व्यथा से पीड़ित होने के कारण दुःख का चिन्तन करते-करते दुःखाकार बन गया । अतः मन से भगवान् का ध्यान नहीं हो सका । बिना ध्यान के दुःख निवृत्त नहीं हो सकता और दुःख निवृत्ति के बिना ध्यान नहीं होता । यह एक भक्त के लिये महाकष्ट का विषय बना हुआ है ।
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अतः हे प्रभो ! दया करके दर्शन देकर इस कष्ट को मिटा दीजिये । जिससे मैं आपका ध्यान कर सकूँ । आपके दर्शनों के बिना तो मेरे प्राण भी व्याकुल हो रहे हैं । मैं मेरी दुःख की कहानी किसके आगे जा कर सुनाऊं, जिससे मेरा दुःख दूर हो जावे । हा, स्मरण मात्र से भक्तों के दुःख को दूर करने वाले प्रभो ! आपके दर्शनों के बिना मेरे हृदय में शान्ति नहीं आ सकती है, अतः दर्शन दीजिये ।
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मैं आपके संग से इस संसार-सागर को पार कर जाऊंगा । अरे प्रभु के दर्शनों के बिना तो ये दिन कितनी कठिनाई से पूरे होंगे । अच्छा कष्ट आता है तो आने दो, मैं कष्ट में भी भगवान् को नहीं भूलूंगा । उस भगवान् के गुणगान करता हुआ परिपूर्ण ब्रह्म को ही मैं अपना स्वामी बनाऊंगा ।
(क्रमशः)
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