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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१२४)*
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*१२४. (गुजराती) विरह विनती*
*राज मृगांक ताल*
*कब मिलसी पीव गृह छाती,*
*हौं औराँ संग मिलाती ॥टेक॥*
*तिसज लागी तिसही केरी,*
*जन्म जन्म नो साथी ।*
*मीत हमारा आव पियारा,*
*ताहरा रंग नी राती ॥१॥*
*पीव बिना मने नींद न आवे,*
*गुण ताहरा ले गाती ।*
*दादू ऊपर दया मया करि,*
*ताहरे वारणे जाती ॥२॥*
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भा० दी०- हे मदीय प्रभो ! मदीयवक्षस्थलस्य त्वदीयवक्षस्थलेन सह संयोग: कदा स्यादिति ब्रूहि । मम मनोवृत्तिर्ब्रह्माकारकारिता सती कदा त्वयि विलयमेष्यति । त्वमेव ब्रूहि । इदानीं मे मनोवृत्तिर्मुखस्वरूपाऽस्ति भवद् वियोगजन्यं दुःखमेव स्मरति । तस्मादेतादृशीं वृत्ति विधेहि येन त्वामेव मे मनःस्मरेन्न दुखम् त्वं परमेश्वरोऽसि, मे जन्मजन्मान्तरेऽपि सहायकः । इदानीमपि मे साहाय्यं विधास्यसि । त्वदर्शनाभावो मां दुःखीकरोति । स भगवान् मम सुहृदप्यस्ति । अतो मम हृदयगृह-मागत्य पवित्रं कृत्वा राजताम् । सुहृद्धि सुहृद्गृहं गच्छत्येव, अन्यथा कीदृशं सौहार्दम् । अहन्तु त्वदीय प्रेमपिपासुरस्मि । अत: प्रेमरसं पायय । त्वां विना तु मम निद्राध्वंसो जातः । विरहस्य दशावस्था: प्रसिद्धाः, तासु निद्राभङ्गोऽप्येकदशाविशेषः । इदानीं त्वद्गुणकीर्तनमेव मे जीवनस्य चरमं प्रयोजनम् । गुणकीर्तनेनैव भगवान् प्रसीदति ।
उक्तंहि-
शब्दो हि धूमवल्लोके बाह्याभ्यन्तरयोगतः ।
विराजते विनिर्गच्छन् तारतम्यञ्च गच्छति ॥
श्रीभागवतेउप्युक्तम्-
गायन्त उच्चैरमुमेव संहता विचिक्युरुन्मत्तकवद् वनाद् वनम् । अतोऽहमपि भगवदागमनार्थं गुणगानं करोमि । कीर्तनेन संसारमोहविस्मृति:, भगवदर्थस्मृतिष्ठ स्वत एव जायते । हे भगवन् दयस्व । यदि दीनेऽपि दयां न वितरसि तदा तव दयालुतैव निष्प्रभा भवेत् । अतस्तव चरणारविन्दयोर्नतमस्तकोऽहं प्रार्थये, प्रसीद मां पाहीति । त्वत्प्रसादाभावादेव लोकाः सुखच्युता भ्राम्यन्ति । सुखस्वरूपं त्वां विहाय बहुशो दुःखहेतुष्वपि प्रवर्तन्ते ।
अत्र चरणारविन्दयोर्नतमस्तकत्वंख्यापनेनायमभिप्रायो विद्यते यद् भक्तानां चरणारविन्देष्वेव सद्गतिः कथिता । अतो मा भवतु भगवान् प्रसन्न: किन्तु चरणानां प्रीतिस्तु मेऽनवच्छिन्ना विराजते । तयैव मे सद्गतिस्तु भवेदेव । चरणानां कृपया विना तु भगवतासादोऽपि दुर्लभः । इति भावः ।
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हे मेरे प्रिय प्रभो ! मैं अपनी छाती को आपके वक्षस्थल के साथ कब मिलाऊंगी ? अर्थात् अपने मन की ब्रह्माकार वृत्ति को आप के रूप में कब लीन करूंगी । इस समय मेरे मन की वृत्ति दुःखरूपा हो रही है । क्योंकि आपके विरह जन्य दुःख को ही याद करती रहती हूं ।
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अतः मेरे पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं आपका ही स्मरण कर दुःख को मिटाने में सहयोग मिले । उनके दर्शनों की प्यास ही मुझे दुःखी कर रही है, कि वे दर्शन नहीं दे रहे हैं । भगवान् मेरा मित्र भी है । अतः उनको मेरे हृदय-घर में आकर मेरे हृदय को पवित्र बना कर सुशोभित करना चाहिये । भक्त के हृदय में भगवान् के विराजने से उसकी शोभा बढती है, तब ही उसका हृदय पवित्र होता है ।
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मित्र को मित्र के घर पर आना ही चाहिये अन्यथा कैसी मित्रता ? मैं आपके प्रेम की प्यासी हूं, अतः प्रेम रस का पान कराइये । तेरे बिना मेरे को नींद नहीं आती । निद्राभंग को विरह की एक दशा बतलाया है । इस समय मैं आपका गुणानुवाद करके ही जी रही हूं । क्योंकि गुणगान से भगवान् प्रसन्न होते हैं । लिखा है कि-
शब्द धूम की तरह बाहर और भीतर आते-जाते रहने के कारण भगवान् से सम्बन्ध करा देता है ।
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भागवत में लिखा है कि-
गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण का गाना गाती हुई एक वन से दूसरे वन में उनको तलाश करती हुई घूम रही हैं । अतः मैं भी भगवान् के आने के लिये ही उनका गुणगान कर रही हूं । गायन में संसार की विस्मृति और परमात्मा की स्मृति स्वतः ही हो जाती है । हे भगवान् दया करो । यदि दीन पर भी दया न करोगे तो फिर आपकी दयालुता ही व्यर्थ हो जायगी । अतः दया करो ।
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बार-बार आपके चरण-कमलों में मस्तक झुका कर प्रार्थना कर रही हूं कि आप प्रसन्न हो जाइये । आपकी प्रसन्नता के बिना ही संसारी मनुष्य सुख रूप आपको भूल कर दुःख देने वाले साधनों में प्रवृत्त हो जाते हैं । चरणों में गिरकर नमस्कार का भाव यह है कि भक्तों की सद्गति भगवान् में चरणों में ही मानी गई है ।
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अतः भले ही भगवान् प्रसन्न न हों किन्तु चरणों में प्रेम तो मेरा अखण्ड बना हुआ ही है । अतः भगवान् के चरणों की कृपा से मेरी सद्गति तो हो ही जायगी और चरणों की कृपा से भगवान् भी प्रसन्न हो जायेंगे ।
(क्रमशः)
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