रविवार, 14 नवंबर 2021

*उपजणि का अंग १६६(१७/१९)*

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*दादू अनुभव उपजी गुणमयी, गुण ही पै ले जाइ ।*
*गुण ही सौं गहि बंधिया, छूटै कौन उपाइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*उपजणि का अंग १६६*
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एक उपज उज्वल करै, एक उपज मल१ मूल२ ।
जन रज्जब उपजी उभय, उपजी देखि न भूल३ ॥१७॥
एक अर्थात अच्छी उपज तो प्राणी को पवित्र बनाती है और एक अर्थात बुरी उपज पाप१ का कारण२ होती है । दोनों ही बुद्धि से उत्पन्न हुई हैं । अत: बुद्धि की उपज को देखकर के ही गलती३ मत कर, भली बुरी उपज का विचार करके भली के अनुसार ही व्यवस्था कर ।
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रज्जब उपजी सौं निपजी सही, कृषि१ करणी२ दत३ माल ।
उपजी आशा बंध है, निपज्यों सकल सुकाल ॥१८॥
उपज से निपजना श्रेष्ठ होता है । खेती१ का उगना तो उपजना है और पककर माल घर आना निपजना२ है । खेती उगती है तब तो आशा ही बंधती है कि - अच्छी होगी, किंतु पक कर माल घर पर आता है तब सब के लिये सुकाल हो जाता है । वैसे ही कर्तव्य२ कर्म और दान३ किया जाता है तब आशा ही बंधती है कि - इनका फल मुझे मिलेगा और फल मिलता है तब आनन्द होता है ।
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अनुभव मेहँदी खेत खित१, उपजत विषम२ उपाय ।
पै रज्जब उपज्यों पिछै, वेगावेगि३ न जाय ॥१९॥
अनुभव पृथ्वी१ में मेहँदी के खेत के समान है । मेहँदी का खेत लगता तो कठिन२ उपाय करने से है किंतु लग जाने के पिछे जल्दी३ नष्ट नहीं होता । वैसे ही अनुभव भी होता तो कठिन साधन करना रूप परिश्रम से है किंतु होने पर पीछे नष्ट नहीं होता ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित उपजणि का अंग १६६ समाप्तः ॥सा. ५११२॥
(क्रमशः)

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