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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३५)*
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*१३५. तर्क चेतावनी । प्रतिपाल*
*जात कत मद को मातो रे ।*
*तन धन जोबन देख गर्वानो,*
*माया रातो रे ॥टेक॥*
*अपनो हि रूप नैन भर देखै,*
*कामिनी को संग भावै रे ।*
*बारम्बार विषय रत मानैं,*
*मरबो चित्त न आवै रे ॥१॥*
*मैं बड़ आगे और न आवे,*
*करत केत अभिमाना रे ।*
*मेरी मेरी करि करि फूल्यो,*
*माया मोह भुलानां रे ॥२॥*
*मैं मैं करत जन्म सब खोयो,*
*काल सिरहाणे आयो रे ।*
*दादू देख मूढ़ नर प्राणी,*
*हरि बिन जन्म गँवायो रे ॥३॥*
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भा० दी०-सर्वतोभावेन जाग्रत: पुरुषस्य गृहे चौरा न प्रवेष्टुं प्रभवन्ति । तथैव यस्यान्त:- करणं विवेकवैराग्यादिगुणैः समाहितं तत्र न कामादिचौराणां प्रवेश: संभवति । कुतो ज्ञानधनस्य चौर्यं संभवेत् । यस्तु जीवो विवेकादिज्ञानविहीनोऽविद्यानिद्रायां सततं स्वपिति तस्य विवेक-वैराग्यादिधनं कामादयश्चौरा: बलादप हरन्ति । गृहस्वामी तु स्वयं स्वपिति । न चान्यो दिव्यगुणसंपन्न: कामादिचौराणां निषेधक: प्रहरी वर्तते, यचौरान निषेधयेत् । शून्यं गृहं मत्वा स्वामिन: सर्वस्वं कामादय-श्चौरा ज्ञानधनं हरन्ति । आयुष्यञ्च प्रतिक्षणं क्षिणोत्येव । अतो हे तात! पूर्वावस्थायामेव जागृहि । यश्च यौवन एव सावधान: (ज्ञान-संपन्न:) भवति तस्य किमपि तात्विकं वस्तु न क्षीयते । अतो यौवन एव त्वया ज्ञानसंपन्नेन भाव्यम् । यत्कर्तव्यमस्ति तत्सपद्येव तत्करणीयम् ।
उक्तंहि वासिष्ठे -वैराग्य सर्गे
इमान्यमूनीति विभावितानि कार्याण्यपर्यन्तमनोरमाणि ।
जनस्य जायाजनरञ्जनेन जवाज्जरन्तं जरयन्ति चेतः ॥
पर्णानि जीर्णानि यथा तरूणां समेत्य जन्माशुलयं प्रयान्ति ।
तथैव लोकाः स्वविवेकहीना: समेत्य गच्छन्ति कुतोऽष्यहोभिः ॥
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हे प्राणी ! तू माया से मोहित होकर कहां जा रहा है । तू अपने शरीर, धन, यौवन को देख-देख कर गर्व करता है, दिन रात मायिक पदार्थों में ही अनुरक्त रहता है, दर्पण में अपनी सुन्दरता को बार-बार क्या देखता है ? तुझे स्त्री का संग ही प्यारा है । विषयों में ही सुख मानता हुआ उनमें अनुराग करता है । क्या तू मृत्यु से भी नहीं डरता ?
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तेरे मन में(मैं ही सबसे महान् हूं) ऐसे मिथ्या अभिमान के अलावा कोई अन्य सद्विचार पैदा ही नहीं होता । तू विद्या, धन, शरीर, यौवन तथा बन्धु-बान्धवों का मिथ्या ही अहंकार करता है । “यह मेरी वस्तु है” इस प्रकार के अहंकार के कारण प्रभु को भूलकर भ्रम में ही पड़ा हुआ भटकता है और मैं गुणी हूं, धनी हूं, आदि अहंकार करके तूने अपनी आयु व्यर्थ में ही खो दी ।
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तेरे शिर पर तो काल खड़ा है, क्या तू उसको भी नहीं देख रहा है ? क्या तू अंधा है ? तूने अपना जीवन हरि-भक्ति के बिना व्यर्थ में ही गँवा दिया, तेरा यह कार्य अच्छा नहीं है ।
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योगवासिष्ठ में –
शरीर की बाल्य और युवा अवस्थाओं के बाद बुढापे की विषम अवस्था में पहुँच कर जरा-जीर्ण वाला जीव विषादमग्न हो इस लोक में अपने संचित धर्म-रहित(पापमय) कर्मों और विचारों को स्मरण करके जीव दुःसह अंतर्ज्वाला से जलता रहता है ।
जीवन के प्रारम्भ में केवल काम, अर्थ और सकाम धर्म की प्राप्ति के उद्देश्य से की गई क्रियाओं द्वारा ही अपने दिन बिताकर वृद्धावस्था को पहुँचे हुए उन मनुष्यों को हिलाते हुए मोरपंख के समान देखकर चंचल चित्त किस उपाय से सुख-शान्ति प्राप्त करे अर्थात् परमार्थ साधन के बिना सुख-शान्ति मिलना कठिन है । अतः अपनी आयु को व्यर्थ में मत गँवाओ ।
(क्रमशः)
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