बुधवार, 1 दिसंबर 2021

*खेचर का अंग १७२(५/९)*

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*दादू कबहूँ कोई जनि मिलै, भक्त भेष सौं जाइ ।*
*जीव जन्म का नाश है, कहैं अमृत, विष खाइ ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खेचर का अंग १७२*
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मुख मीठे जल मुकुर१ जिमि, पै ज्वाला मय२ अंग३ ।
रज्जब कदे न कीजिये, तिन कपट्यों का संग ॥५॥
कपटी मनुष्य मुख से तो आतशी शीशे१ के पानी के समान प्यारे लगते हैं किंतु जैसे आतशी के भीतर अग्नि होता है, वैसे ही उसके शरीर३ में भी अग्नि ज्वाला रूप२ भी होता है । अत: उन कपटी जनों का संग कभी भी नहीं करना चाहिये ।
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रज्जब दीसै सो नहीं, अण१ देखी भरपूरि ।
मुकुर सरभरी२ मानवी३, तिन तै रहिये दूरि ॥६॥
जैसे आतशी शीशे में दीखता तो पानी है और भीतर होता है अग्नि । वैसे जिन मनुष्यों के वचनादि में मधुरतादि गुण दीखते हैं, वैसे भीतर नहीं है और जो नहीं१ दीखते वे दुर्गुण भीतर भरे हों, उन आतशी शीशे के समान२ मनुष्यों३ से सदा दूर ही रहना चाहिये ।
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आरीसे१ के अंभ२ का, सब को करै बखाण३ ।
जन रज्जब सो अग्नि मय, विरलों वह्नी४ जान ॥७॥
आतशी१ शीशे के पानी२ की उत्तमता का कथन३ सभी करते हैं किंतु वह अग्नि रूप है उसकी अग्नि४ को कोई विरला ही जानता है । वैसे ही कपटी मनुष्य के कपट पूर्ण व्यवहार की सब बडाई करते हैं किंतु वह कपट रूप ही होता है । उसके कपट को कोई विरला ही जान पाता हैं ।
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मुख साधू मन में असध१, परिहर२ कपटी मंत३ ।
रज्जब देखे द्विपि४ दरश५, दोय मत६ हु चौदंत ॥८॥
मुख से तो साधु की सी बातें करके साधु बने हुये रहते हैं और मनमें पूरे असाधु१ बने हुये रहते हैं । ऐसे कपटी जनों के विचार२ त्याग३ देने चाहिये । हमने देखा है कि जैसे हाथी४ के दाँत दिखाने५ के तो दो ही होते हैं किंतु भीतर चार और होते हैं । वैसे ही कपटी की सुनाने की तो बात तो और होती है और भीतर विचार६ दूसरा होता है ।
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दुर्जन दिल दरपण सही१, मुख पाणी मधि आगि२ । 
तिन का संग न कीजिये, भोला भोंदू३ भागि ॥९॥
दुष्ट निश्चय१ ही आतशी शीशे के समान होता है । जैसे आतशी शीशे के ऊपर तो उसकी उज्वलता रूप पानी होता है और भीतर अग्नि२ रहता है वैसे ही दुर्जन मुख से तो जल के समान शीतल वचन बोलता है और भीतर के विचार अग्नि के समान दूसरों को तपाने वाले रखता है । अत: हे भोले मूर्ख३ उन दुष्टों का संग नहीं करके उनसे दूर ही रह । 
(क्रमशः)

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