गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

*क्रोध का अंग १७३(९/१२)*

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*दादू खाये साँपणी, क्यों कर जीवैं लोग ।*
*राम मंत्र जन गारुड़ी, जीवैं इहि संजोग ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*क्रोध का अंग १७३*
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धन्वन्तरि रूप धुनि१ धारि है, अहि२ इन्द्रि व्यवहार ।
ताखे३ तामस४ सौं डरी, वैधी विध्वंसनहार ॥९॥
ज्ञान के शब्द१ धारण करने वाले ज्ञानी धन्वन्तरि रूप हैं । जैसे धन्वन्तरि वैद्य अपनी औषधियों से सर्पों२ को जीतता है, वैसे ही ज्ञानी अपने श्रेष्ठ व्यवहार से इन्द्रियों को जीतता है किन्तु धन्वन्तरि वैद्य को भी तक्षक३ सर्प से डरते रहना चाहिये । वह वैद्यों को भी नष्ट करने वाला है । वैसे ही ज्ञानी को भी क्रोध२ से डरते रहना चाहिये । वह ज्ञानियों को भी अपने अधीन करने वाला है ।
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साधु शब्द स्त्रक्१ काठ, सो शीतल ताप हि हरै ।
परि घसे उभय अंग२ पाठ, जन रज्जब तेऊ३ जरै ॥१०॥
चन्दन१ का काष्ठ शीतल होता है और दूसरे की जलन हर लेता है किंतु वो चंदन काष्ठों को निरन्तर घिसा जाय तो वे भी गर्म हो जाता हैं । वैसे ही जो संतों के शब्द होते हैं, वे भी शांति प्रद होते हैं किंतु दो शरीरों२ के द्वारा उनका विवाद रूप से पाठ होता है तब उन३ दोनों शरीरों में क्रोधाग्नि जलने लगता है ।
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मान महंतन में रहै, क्रोध कलंकी नेम ।
ज्यों पारस पावक बसे, जा लगि लोहा हेम ॥११॥
जैसे जिस पारस के स्पर्श से लोहा सुवर्ण हो जाता है, उस पारस में भी अग्नि नियम से रहता है । वैसे ही निश्चय मान जिसके सत्संग से जीव ब्रह्म हो जाता है उन माननीय महंतों में भी कलंकी क्रोध नियम पूर्वक रहता है ।
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रज्जब साधू शेष गति१, मणि मुख नाम उचार ।
शब्दन महणारंभ२ करि, बुधि३ विष हो तन बार४ ॥१२॥
संत शेष अर्थात मणिधारी सर्प के समान१ है । जैसे उस सर्प के मुख में विष नाशक मणि होने पर भी विष उत्पन्न होता रहता है, वैसे ही संत के मुख में भगवान का नाम रहने पर भी शब्दों का मन्थन२ रूप शास्त्रार्थ आरम्भ करने पर बुद्धि३ में क्रोध उत्पन्न होते देर४ नहीं लगती ।
(क्रमशः)

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