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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१३९)*
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*१३९. विरह विनती । त्रिताल*
*मन वैरागी राम को, संगि रहै सुख होइ हो ॥टेक॥*
*हरि कारण मन जोगिया, क्योंहि मिलै मुझ सोइ ।*
*निरखण का मोहि चाव है,*
*क्यों आप दिखावै मोहि हो ॥१॥*
*हिरदै में हरि आव तूँ, मुख देखूं मन धोहि ।*
*तन मन में तूँ ही बसै, दया न आवै तोहि हो ॥२॥*
*निरखण का मोहि चाव है, ये दुख मेरा खोइ ।*
*दादू तुम्हारा दास है, नैन देखन को रोइ हो ॥३॥*
भा० दी०-जगदाधारण प्रभुणा वयं वञ्चिता: यतस्तेनास्माकं मनसि स्वमायया मायिकपदार्थे-ध्वेव रतिर्जनिता । अतो वञ्चिताः सन्तो मुग्धा जाताः । तेन स्वस्वरूपं त्वंशेनापि न दर्शितम् । न चास्पदुक्तं वचनमुररीकरोति स तु स्वमन:प्रियं कार्य विधत्ते । अस्मान् वञ्चयित्वास्माकं सर्वस्वमपहृतवान् । न च निर्बलानप्यङ्गीकरोति । स्वयं जीवह्रदये वसन्नपि तेषां मन:
सांसारिकविषयष्वेव प्रलोभ्य तेष्वेव विषयेषु रमयति ।
अतस्ते सांसारिकविषयासक्ता जाताः ।
अस्माभिः सह क्रीडन्नस्मान् प्रसन्नीकरोति । परन्तु दर्शनं न ददाति । स च हृदयगुहां प्रविष्टो विलीयते तत्रैव न च कोऽपि तस्यान्तं वेत्ति इति महदाश्चर्यम् । यथा माता बालकं बोधयन्ती प्रसादयति तथा भगवानपि जीवान् मायया मोहयन् वशीकरोति । वास्तविकं तात्त्विकं स्वरूपं कस्मैचिदपि न दर्शयति । यावद्धि भेददृष्टिस्तावन्नाद्वैतज्ञानं जायते । अद्वैतज्ञाने जाते तु भेदनिवृत्त्या कः कं भेदेन पश्येत् ।
उक्तं वेदान्तसंदर्भे मनोलयप्रकरणे-
देहमध्ये स्थितं ब्रह्म कथं मूढ न पश्यसि
वाचा जल्यो वृथाऽयं तु निःशब्दं ब्रह्म उच्यते ॥
माया ब्रह्म कथं भिन्नं सूर्यरश्मी तथैव च
पुष्पगन्धं कथं भिन्नं जलतरङ्गं तथैव च ॥
ब्रह्मरूपमिदं सर्वं ब्रौवाहं न संशयः
मनोलयं भवेद् ब्रह्म बह्ममूलमिदं जगत् ॥
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भगवान् श्रीराम को देखने के लिये मेरा मन विषयों से उपराम हो रहा है । सर्वदा ही मेरे साथ उनका वास होगा, तब ही मुझे परमानन्द प्राप्त होगा । उनका दर्शन कैसे हो ? ऐसा विचार कर उनकी प्राप्ति के लिये मेरा मन वृत्तियों को रोक कर योगी हो रहा है और मन में उनके दर्शनों की बड़ी उत्कण्ठा लगी हुई है । कैसे भगवान् अपने स्वरूप को प्रकट करेंगे ? जिससे मैं उनको देख लूं ।
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हे हरे ! मेरे हृदय में प्रविष्ट हो जावो, जिससे मैं अपने मन को पवित्र बना कर आपके मुख कमल का सदा ध्यान करता रहूं । मेरे हृदय में निवास करते हुए भी आप दर्शन नहीं देते, क्या आपकी दयालुता कहीं चली गई है ? क्या ! आप मेरे दुर्भाग्य से निर्दयी हो गये ? हे हरे ! मैं आपका दास हूं और आपके दर्शनों के लिये रो रहा हूं । अतः आप दर्शन देकर मेरे विरहजन्य दुःख को दूर कीजिये ।
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गोपीगीत में लिखा है कि –
हे कृष्ण ! हमारे प्राण आपके पास हैं और हम आपको दिशाओं में तलाश कर रही है । हम आपकी हैं और आप हमारे प्यारे हैं । अतः आपको दर्शन देना चाहिये ।
(क्रमशः)
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