गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

*मैं और मेरा-पन यही अज्ञान है*

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*मैं मैं करत सबै जग जावै, अजहूँ अंध न चेते रे ।*
*यह दुनिया सब देख दिवानी, भूल गये हैं केते रे ॥टेक॥*
*मैं मेरे में भूल रहे रे, साजन सोइ विसारा ।
*आया हीरा हाथ अमोलक, जन्म जुवा ज्यों हारा ॥१॥*
*लालच लोभैं लाग रहे रे, जानत मेरी मेरा ।*
आपहि आप विचारत नाहीं, तूँ का को को तेरा ॥२॥*
*आवत हैं सब जाता दीसैं, इनमें तेरा नाहीं ।*
*इन सौं लाग जन्म जनि खोवै, शोधि देख सचु मांहीं ॥३॥*
*निहचल सौं मन मानैं मेरा, साँई सौं बन आई ।*
*दादू एक तुम्हारा साजन, जिन यहु भुरकी लाई ॥४॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद. २९)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
"मैं और मेरा-पन यही अज्ञान है । ‘हे ईश्वर ! सब कुछ तुम्हीं कर रहे हो और मेरे अपने आदमी तुम्हीं हो । यह सब घर, द्वार, परिवार, आत्मीय, बन्धु, सम्पूर्ण संसार तुम्हारा है ।’ इसी का नाम है यथार्थ ज्ञान । इसके विपरीत 'मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ, कर्ता मैं, घर, द्वार, कुटुम्ब परिवार, लड़के-बच्चे सब मेरे हैं’ - इसका नाम है अज्ञान ।
.
"गुरु शिष्य को ये सब बातें समझा रहे थे । कह रहे थे - एकमात्र ईश्वर ही तुम्हारे अपने हैं, और कोई अपने नहीं । शिष्य ने कहा, 'महाराज, माता और स्त्री ये लोग तो मेरी बड़ी खातिर करते हैं, अगर मुझे नहीं देखते तो तमाम संसार में उनके लिए दुःख का अँधेरा छा जाता है, तो देखिये, वे मुझे कितना प्यार करती हैं ।’
.
गुरु ने कहा, "यह तुम्हारे मन को भूल है । मैं तुम्हें दिखलाये देता हूँ कि तुम्हारा कोई नहीं है । दवा की ये गोलियाँ अपने पास रखो, घर जाकर गोलियों को खाना और बिस्तरे पर लेटे रहना । लोग समझेंगे, तुम्हारी देह छूट गयी है । मैं उसी समय पहुँच जाऊँगा ।
.
"शिष्य ने वैसा ही किया । घर जाकर उसने गोलियों को खा लिया । थोड़ी देर में वह बेहोश हो गया । उसकी माँ, उसकी स्त्री, सब रोने लगीं । उसी समय गुरु वैद्य के रूप में वहाँ पहुँच गये । सब सुनकर उन्होंने कहा, अच्छा, इसकी एक दवा है - यह फिर से जी सकता है । परन्तु एक बात है ।
.
यह दवा पहले आप में से किसी को खानी चाहिए, फिर यह उसे दी जायेगी । परन्तु इसका जो आत्मीय यह गोली खायेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी । और यहाँ तो इसकी माँ भी हैं ? और शायद स्त्री भी है, इनमें से कोई न कोई अवश्य ही दवा खा लेगी । इस तरह यह जी जायेगा ।'
.
"शिष्य सब कुछ सुन रहा था । वैद्य ने पहले उसकी माता को बुलाया । माँ रोती हुई धूल में लोट रही थी । उसके आने पर कविराज ने कहा, 'माँ, अब तुम्हे रोना न होगा । तुम यह दवा खाओ तो लड़का अवश्य जी जायेगा, परन्तु तुम्हारी इससे मृत्यु हो जायेगी ।' माँ दवा हाथ में लिये सोचने लगी ।
.
बहुत कुछ सोच-विचार के पश्चात् रोते हुए कहने लगी 'बाबा, मेरे एक दूसरा लड़का और एक लड़की है, मैं अगर मर जाऊँगी, तो फिर उनका क्या होगा ? यही सोच रही हूँ । कौन उनकी देख-रेख करेगा, कौन उन्हें खाने को देगा, यही सोच रही हूँ ।' तब उसकी स्त्री को बुलाकर दवा दी गयी । उसकी स्त्री भी खूब रो रही थी । दवा हाथ में लेकर वह भी सोचने लगी ।
.
उसने सुना था, दवा खाने पर मृत्यु अनिवार्य है । तब उसने रोते हुए कहा, 'उन्हें जो होना था सो तो हो गया, अब मेरे बच्चों के लिए क्या होगा ? उनकी सेवा करनेवाला कौन है ? फिर... मैं कैसे दवा खाऊँ ?' तब तक शिष्य पर जो नशा था, वह उतर गया । वह समझ गया कि कोई किसी का नहीं है । तुरन्त उठकर वह गुरु के साथ चला गया । गुरु ने कहा, तुम्हारे अपने बस एक ही आदमी हैं – ईश्वर ।
.
"अतएव उनके पादपद्मों में जिससे भक्ति हो - जिससे वे मेरे हैं, इस तरह के सम्बन्ध से प्यार हो, वही करना चाहिए और वहीं अच्छा भी है । देखते हो, संसार दो दिन के लिए है । इसमें और कहीं कुछ नहीं है ।"
.
पण्डित - (सहास्य) - जी, जब यहाँ आता हूँ, तब उस दिन पूर्ण वैराग्य हो जाता है । इच्छा होती है कि संसार का त्याग करके कहीं चला जाऊँ ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, त्याग क्यों करना होगा ? आप लोग मन में त्याग का भाव लाइये । संसार में अनासक्त होकर रहिये ।
.
"सुरेन्द्र ने कभी कभी आकर रहने की इच्छा से एक बिस्तरा यहाँ ला रखा था । दो एक दिन आया भी था । फिर उसकी बीबी ने कहा, 'दिन के समय चाहे जहाँ जाकर रहो, रात को घर से न निकलने पाओगे ।' तब सुरेन्द्र क्या कहता ? अब रात के समय कहीं रहने का उपाय भी नहीं रह गया ।
.
"और देखो, सिर्फ विचार करने से क्या होता है ? उनके लिए व्याकुल होओ, उन्हें प्यार करना सीखो । ज्ञान और विचार ये पुरुष हैं, इनकी पहुँच बस दरवाजे तक है । भक्ति स्त्री है, वह भीतर भी चली जाती है ।
.
“इसी तरह के एक भाव का आश्रय लेना पड़ता है - तब मनुष्य ईश्वर को पाता है । सनकादि ऋषि शान्तभाव लेकर रहते थे । हनुमान दासभाव में थे । श्रीदास, सुदाम आदि व्रज के चरवाहों का सख्यभाव था । यशोदा का वात्सल्यभाव था - ईश्वर पर उनकी सन्तानबुद्धि थी । श्रीमती का मधुरभाव था । "हे ईश्वर, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ, इस भाव का नाम है – दासभाव । साधक के लिए यह भाव बहुत अच्छा है ।"
पण्डित - जी हाँ ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें