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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #.१४१)*
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*१४१. समर्थाई । राजमृगांक ताल*
*सिरजनहार तैं सब होइ ।*
*उत्पत्ति परलै करै आपै, दूसर नांहीं कोइ ॥टेक॥*
*आप होइ कुलाल करता, बूँद तैं सब लोइ ।*
*आप कर अगोचर बैठा, दुनी मन को मोहि ॥१॥*
*आप तैं उपाइ बाजी, निरखि देखै सोइ ।*
*बाजीगर को यहु भेद आवै, सहज सौंज समोइ ॥२॥*
*जे कुछ किया सु करै आपै, येह उपजै मोहि ।*
*दादू रे हरि नाम सेती, मैल कश्मल धोइ ॥३॥*
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भा० दी०-जगज्जन्मादिहेतुः प्रभुरेव जगदिदमभिन्ननिमित्तोपादानकारणत्वरूपेण सृजति, पाति, संहरति च । स्वयमेव घटं कुम्भकार इव स्थावरजङ्गमप्राणिनां शरीराणि निर्माति । “एकोऽहं बहुस्याम” इति संकल्पमात्रेण बहुधा भूत्वा सांसारिकाणां सृष्टिविधाय मायया तेषां मनो विमोह्य स्वयं निर्मायिकस्तिष्ठति । कर्मानुसारेण भिन्न भिन्नं फलं प्रदाय पालयति । न चैतन्माहात्म्यमीश्वरस्य कोऽपि सर्वात्मना विजानीते । अहन्तु तस्यैव परमात्मन: सर्वव्यापकस्य सामर्थ्य मन्ये । हे जीव ! त्वमपि हरिनाम कीर्तयन् स्वकीयं मानसं मलं दूरीकुरु । तदैवेश्वरस्य शक्तिज्ञानं ज्ञास्यसि । कीदृशो विलक्षण: प्रभुरस्ति ?
उक्तं श्वेताश्वतरोपनिषदि-
स्वभावमेके कवयो वदन्ति कालं तथाऽन्ये परिमुहह्यमानाः ।
देवस्यैशमहिमा तु लोके येनेदं भ्राम्यते ब्रह्मचक्रम् ॥
मुण्डके-
यथोर्णनाभि: सृजते गृह्यते च यथा पृथिव्यामौषधय: संभवन्ति ।
तथा सत: पुरुषात्केशलोमानि तथाऽक्षरात्प्रभवन्तीह विश्वम्॥
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुयोतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी॥
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जगज्जन्मादि कर्ता प्रभु ही इस जगत् को अभिन्न निमित्तोपादान रूप से बनाता है । जैसे कुम्भकार घट का निर्माण करता है वैसे ही परमात्मा स्थावरंजंगम प्राणियों के शरीरों को बनाता है । मैं अकेला हूं, ऐसा संकल्प करके स्वयं ही अनेक रूप में बनकर संसारी पुरुषों के मन को अपनी माया से मोहित करके स्वयं मायारहित रहता है । प्राणियों के भिन्न-भिन्न कर्मानुसार उन्हें भिन्न-भिन्न फल देकर पालन करता है ।
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श्वेताश्वतर उपनिषद् में –
उसकी सामर्थ्य को कोई नही जानता । मैं तो यह सब कुछ जो है, वह परमात्मा की ही महिमा मानता हूं । हे जीव ! तुम भी परमात्मा का ध्यान करते हुए अपने मन को पवित्र बनालो तब ही ईश्वर को जान सकोगे कि परमात्मा कैसा विलक्षण सामर्थ्य वाला है ?
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श्वेताश्वतर उपनिषद् में –
कितने ही बुद्धिमान् लोग स्वभाव को ही कारण मानते हैं । कुछ दूसरे लोग काल को कारण मानते हैं । वास्तव में यह सब लोग मोहग्रस्त हैं क्योंकि वास्तविक कारण को जानते नहीं । वास्तव में यह परम देव परमात्मा की समस्त जगत् में फैली हुई महिमा है । जिसके द्वारा यह ब्रह्म-चक्र घुमाया जाता है ।
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मुण्डक में –
जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती है और स्वयं ही निगल जाती है, जैसे पृथिवी में नाना प्रकार की औषधियां उत्पन्न होती हैं, जिस प्रकार जीवित मनुष्य के शरीर में केश उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अविनाशी परब्रह्म से इस जगत् में सब कुछ पैदा होता है । उसी ब्रह्म से प्राण, मन, इन्द्रियाँ, वायु, ज्योति, जल, पृथ्वी पैदा होती है ।
(क्रमशः)
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