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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*२१. बिचार कौ अंग ~ ५७/६०*
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तामस का एही अरथ, तिसणा तपत बुझाइ ।
कहि जगजीवन हरि तजि भटकै, कूप पड़ै फिर जाइ* ॥५७॥
(*=*. परन्तु राजस एवं तामस पुरुष पराया धन लूट कर, उसी से विषयसुख भोगते हुए रामभक्ति से विमुख ही रहते हैं ॥५६=५७॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तामसिक प्रवृति का अर्थ यह ही है कि वह तृष्णा जनित दाह को मिटाये । अतःतामसी जन पराया अधिकार भी छीन कर उसी से विषय सुख भोगते हुए राम भक्ति से विमुख ही रहते हैं ।
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त्रिगुणी माया त्रिगुणी काया, त्रिगुणी छाया तेज ।
कहि जगजीवन कोइ जन खेलै, पार ब्रह्म को सेज ॥५८॥
संतजगजीवन जी माया काया व आश्रय, व तेज के तीन गुण है सात्विक राजसी व तामसिक जो इन को जान पाता है वह ही ब्रह्म का सानिध्य पा लेता है ।
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अंबर१ अंबु२ उरै३ परै४, अवनी५ मांहै६ एह ।
कहि जगजीवन हरिजल बरसै, प्रिथवी पावै तेह ॥५९॥
(१. अंबर=आकाश) (२. अंबु=जल) (३. उरै= इधर) (४. परै=उधर) (५. अवनी=पृथ्वी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिभजन आकाश से बरसे जल की भांति है कि वह पृथ्वी पर कहीं भी बरसे धरती उसे ग्रहण करती ही है ।
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जे हरि बीरज६ सोइ फल७, अवनी बहुरम दाख ।
कहि जगजीवन मूल मंहि, अनंत फूल फल साख ॥६०॥
{६. बीरज= वीर्य(कारण)} (७. फल=कार्य)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ऐसा बीज होगा या कृत कृत्य होगा उसका फल या परिणाम भी वैसा ही होगा, पृथ्वी तो माध्यम है जैसा बोयेंगे वेसा ही फल शाखा व फूल होंगे । अच्छे कार्यों के परिणाम भी अच्छे होंगे ।
(क्रमशः)
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