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*अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।*
*दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥*
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श्री रज्जबवाणी टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*खेचर का अंग १७२*
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मुख मीठे कड़वे कमल, दुरस दिनाई ऐन ।
रज्जब मिल मुख मेलतों, कहु क्या पावै चैन ॥१०॥
दुष्ट ठीक शीघ्र मृत्युकारी दिनाई नामक विष के समान है । जैसे वह विष मुख में तो मीठा लगता है किंतु फिर शीघ्र ही मार देता है । उसे मुख में रख कर कहो कोई क्या सुख पायेगा ? वैसे ही दुष्ट मुख से तो मधुर बातें करता है । किंतु हृदय में कड़वा होता है । उससे मिलकर कहो कोई क्या सुख पायेगा ?
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ऊपर अमृत बीच विष, देहु दिनाई डारि ।
सो खाये खैमान१ ह्नै, विरचौ२ वीर३ विचारि ॥११॥
ऊपर तो अमृत के समान मधुर वस्तु हो और उसके बीच में दिनाई विष डाल दें तो उसके खाने से मरे ही गा । वैसे ही दुष्ट के मुख से तो अमृत के समान मधुर वचन होते हैं और भीतर बुराई रहती है । उसके संग से तो हानि ही होगी । हे भाई३ ! यह विचार करके उससे से उपराम२ ही रहना चाहिये ।
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दुष्ट दिनाई दानि है, मुख मिश्री में पागि१ ।
यहु विष अमृत देखिये, भाग्य बली तो भागि ॥१२॥
दुष्ट मुख रूप मिश्री में मिलाकर दिनाई विष को देने वाला है । जैसे दिनाई विष को मिश्री में मिला१ कर देने से वह अमृत के समान मधुर दीखता है किंतु मार देता है । वैसे ही यह दुष्ट मधुर वचन बोलने से प्रिय लगता है किंतु अंत में दु:ख ही देता है । अत: तेरा भाग्य बली हो तो दुष्ट जनों से दूर ही रह ।
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जीव मरायण१ बीज सम, जिह्वा छूत२ समान ।
तिन के ऊपर लीजिये, तजिये उर३ अस्थान ॥१३॥
जिसका बीज तो मारनेवाला१ हो और छिलका२ हितकर हो तब उसके ऊपर का छिलका ही लेना चाहिये । वैसे ही दुष्ट की जिह्वा के वचन तो प्रिय होते हैं, उनको सुनने से तो कोई हानि नहीं किंतु उस जीव के हृदय३ स्थान के विचार त्याग देने चाहिये अर्थात उसकी बात सत्य नहीं माननी चाहिये, सत्य मानने से ही नाशक होती है ।
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अमित१ अज्ञान६ उरगनी२, जो जातक३ जणि४ खाय ।
रज्जब छूटै एक को, जो मोह मरद५ तज जाय ॥१४॥
जैसे सर्पणी२ जो भी बच्चे३ उत्पन्न४ करती है उन सब को खा जाती है । उससे कोई एक बिरला ही बचता है जो उसकी लकीर से बाहर चला जाता है(सर्पणी १०१ अण्डे देती है और उसके चारों ओर गोल लकीर निकाल देती है, जो मुड़कर उस लकीर से बाहर निकल जाता है उसे नहीं खाती बाकी सभी को खा जाती है) वैसे ही अपार१ अज्ञानी६ पुत्र उत्पन्न होते हैं, उन सबको दुष्टनी माया खा जाती है । जो कोई मोह को जीतने वाले वीर५ होते हैं, वे माया को त्याग कर घर से चले जाते हैं, उनमें कोई बिरला ही माया से छुट पाता है ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित खेचर का अंग १७२ समाप्तः ॥सा. ५१५०॥
(क्रमशः)
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